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________________ ३२ भक्तामर प्रवचन काव्य५ नियमसार में श्री पद्मप्रभमलधारी देव कहते हैं - 'हे मुनिजनो ! देवताओं की ऋद्धि तथा वैभव देखकर क्या तुम्हें भी उसकी इच्छा होती है ?' शुभविकल्प की वृत्ति अस्थिर है, अत: उसका तथा उसके फल का आदर करना योग्य नहीं है। धर्मी जीव यद्यपि भोगदि की सामग्री नहीं चाहते, फिर भी उन्हें सहज ही मिलती है। तू अपने अन्तर के ज्ञानानंदमय साम्राज्य की महिमा को छोड़कर लौकिक लाभ की - भौतिक साम्राज्य की इच्छा मत कर! श्री मानतुङ्ग कहते हैं कि हे मुनिनाथ ! वर्तमान में यद्यपि केवलज्ञान प्रगट होने की शक्ति नहीं है, फिर भी हम केवलज्ञान के गीत गाते हैं। हे परमेश ! हे परमात्मा ! आप परमेष्ठीपद में परिपूर्ण ईश्वर हो । हमारी मुनिदशा वर्तती है और आपके केवलज्ञान वर्त रहा है। केवलज्ञान लेने की सामर्थ्य वर्तमान में हममें नहीं है, फिर भी भक्तिवश वीतरागता के प्रति हमारा उल्लास आपकी स्तुति करने को प्रेरित करता है। जिसप्रकार श्री पद्मप्रभमलधारी देव नियमसार शास्त्र के कलश में कहते हैं - हमारा मन आगम के सार को कहने में उद्यत हुआ है। उसीप्रकार यहाँ श्री मानतुङ्ग आचार्य कहते हैं कि आपकी स्तुति करने में मेरी बुद्धि सावधान हुई है, उद्यत हुई है। यद्यपि मुझमें शक्ति नहीं है, फिर भी मैं कहता हूँ। जिसप्रकार सिंह हिरनी के बच्चे को मारने के लिए दौड़ता है, तब हिरणी अपनी शक्तिको विचार किये बिना ही उसका प्रतिकार करने को उद्यत हो जाती है; उसीप्रकार यद्यपि मेरी पर्याय में बहुत कमजोरी है, तथापि मैं आपकी भक्ति करने के लिए उद्यत हुआ हूँ। केवलज्ञान की महिमा मेरे ख्याल में है, अत: परमात्मा के प्रति मेरे हृदय में भक्ति भावना उल्लसित हो रही है। जिसप्रकार मृगी अपने बच्चे को बचाने के लिए सिंह के सामने जाती है, उसीप्रकार हे भगवन् ! मेरी साधक दशा बच्चे के समान है, अत: उसके परिपालन के लिए आपके प्रति भक्ति का प्रेम उमड़ता है। उसमें कुदेव-कुगुरु-कुशास्त्र की भक्तिकभी नहीं आती, किन्तु विकल्प आये तो मुख्यतया आपकी ही भक्ति का विकल्प आता है। हे भगवन् ! जिसप्रकार शक्ति न होते हुए भी हिरणी अपने बच्चे को बचाने के लिए सिंह के सम्मुख दौड़ती है, उसीप्रकार साधक जीव केवलज्ञान के सम्मुख जाता है। ___ अज्ञानी मानता है कि भक्तामर स्तोत्र का पाठ करने से पैसा मिलता है, रोगादि दूर होते हैं; किन्तु भाई ! यह दुखदायक अज्ञानभाव है। हित-अहित अपने भावों के अनुसार ही होता है, यहाँ तो सच्ची समझ सहित ज्ञानी साधकजीव पूर्णज्ञान प्रगट करने में तत्पर हो रहा है। श्रीमद् रायचन्द्रजी ने 'अपूर्व अवसर' नामक काव्य में पूर्णस्वरूप प्रगट कब करूँगा - ऐसी भावना की है। उसमें केवलज्ञान के सन्मुख होने की भावना की है। अभी अल्पज्ञान है, इसलिए पूर्णता की प्राप्ति के लिए केवलज्ञान की भक्ति करता हूँ। शक्ति न होते हुए भी आपकी (परमात्मा) की भक्ति करता हूँ; इसमें अन्य कोई हेतु नहीं है। दुनिया की प्रशंसा या यश की चाह नहीं है। आत्मा के परिपूर्ण ज्ञान की प्रतीति है, उसी के अनुकरण करने की भक्तिरूप राग आता है। हे नाथ ! मुझे आपकी ही प्रीति है। स्वर्ग या इन्द्रपद की इच्छा नहीं है । पूर्ण स्वभाव प्रगट नहीं हुआ है, इसलिये इस जाति का राग आता है। 'राग करने योग्य है' - ऐसा मैं नहीं मानता। श्री मानतुङ्गाचार्य पंचमकाल के मुनि थे, वे पूर्णस्वभाव को ध्येय बनाकर उस तरफ ही दौड़ लगा रहे हैं। भक्तामर काव्य की रचना करते हुए वे कहते हैं कि यदि कोई मेरी बात की हँसी करता है तो करे, उसकी ओर हमारा ध्यान नहीं है; क्योंकि संयोग और पर्याय की ओर देखनेवाले क्या कहेंगे? - यह बात हम भली-भाँति जानते हैं। ___शास्त्रों में मुनियों के द्वारा जिस अरहन्त-सिद्ध दशा का वर्णन किया गया है, वे अरहन्त वीतराग भगवान तो वर्तमान में यहाँ विराजमान हैं नहीं, तब इतनी अधिक भक्ति क्यों ? इसप्रकार कोई प्रश्न करे तो उसका विवेचन छठे श्लोक में आगे किया गया है, वहाँ से जान लेना । हे नाथ ! मुझे भक्ति का उत्साह आपके गुणानुवाद करने के लिए प्रेरित करता है।
SR No.008342
Book TitleBhaktamara Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size385 KB
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