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________________ भक्तामर प्रवचन पहले निश्चयभक्ति की बात कही थी। यहाँ व्यवहारभक्ति की बात है और मिथ्यादृष्टि के तो वास्तव में यथार्थ भक्ति है ही नहीं, इसलिये उसके वास्तव में पाप नष्ट ही नहीं होते। मिथ्यादृष्टि अपनी अंधश्रद्धा से भले ही भगवान का नाम लेता हो, पर वास्तव में तो वह आस्रव व बन्ध तत्त्व की ही उपासना करता है; अत: संसार-भोग के हेतुभूत अर्थ का ही आदर करता है। वास्तव में अभव्य या भव्य मिथ्यादृष्टि तो भगवान को नमते ही नहीं हैं, किन्तु जिन्हें निर्मल चैतन्यस्वभाव का बहुमान आया है, वह ही भगवान को नमता है और वही निज महिमा में रमता है। जो निश्चयसहित व्यवहारभक्ति के स्वरूप को जानता है, शुद्ध चैतन्य स्वभाव का जिसे भान हुआ है अर्थात् जो वीतरागता की रुचि में वीतरागी भगवान की भक्ति करता है, वह नि:संदेह से कहता है कि हे नाथ ! मैं भी आपकी तरह निज-स्थिरता करके केवलज्ञान प्राप्त करूँगा। ज्ञान की विनय जैनधर्म के चारों अनुयोगों के शास्त्रों का तात्पर्य वीतरागता है। धर्मी जीव वीतरागी तात्पर्य बतलाकर चारों अनुयोगों का प्रचार करे। प्रथमानुयोग में तीर्थंकरादि महान धर्मात्माओं के जीवन की कथा, चरणानुयोग में उनके आचरण का वर्णन, करणानुयोग में गुणस्थान आदि का वर्णन और द्रव्यानुयोग में अध्यात्म का वर्णन - इन चार प्रकार के शास्त्रों में वीतरागता का तात्पर्य है। इन शास्त्रों का बहुमानपूर्वक स्वयं अभ्यास करे, प्रचार और प्रसार करे। जवाहरात के गहने या बहुमूल्य वस्त्र आदि को कैसे प्रेम से घर में सँभालकर रखते हैं, इसकी अपेक्षा विशेष प्रेम से शास्त्रों को घर में विराजमान करे और सजा करके उनका बहुमान करे - यह सब ज्ञान का ही विनय है। - पूज्य श्री कानजी स्वामी श्रावक धर्मप्रकाश, पृष्ठ : ५९-६० काव्य ५ सोऽहं तथापि तव भक्ति-वशान्मुनीश कर्तुस्तवं विगत-शक्तिरपि प्रवृत्तः । प्रीत्यात्म-वीर्यमविचार्य मृगी मृगेन्द्र नाभ्येति किं निज-शिशो: परिपालनार्थम् ।।५।। हिन्दी काव्य सो मैं शक्तिहीन थुति करूँ, भक्तिभाव वश कुछ नहिं डरूँ। ज्योंमगि निज-सुत पालन हेत, मगपति सन्मुख जाय अचेत ॥५॥ अन्वयार्थ - (तथापि) फिर भी (मुनीश!) हे मुनीश्वर ! [ऋषभदेव ] (सः) वह शक्तिहीन (अहम्) मैं [ मानतुङ्ग ] (विगत-शक्ति:-अपि) सामर्थ्यहीन होते हुए भी (भक्तिवशात्) भक्तिवश (तव स्तवं कर्तुं प्रवृत्तः) आपके गुणों का कीर्तन करने के लिए तत्पर हुआ हूँ। जैसे (मृगी प्रीत्या आत्म-वीर्यम् अविचार्य) हिरणी प्रीतिवश अपनी शक्ति को बिना विचारे ही (निज-शिशो: परिपालनार्थम्) अपने बच्चे की रक्षा करने के लिए (किं मृगेन्द्रं न अभ्येति) क्या सिंह का सामना नहीं करती है ? अर्थात् करती ही है। उसीप्रकार मैं भी आपकी भक्ति में प्रवृत्त हुआ हूँ। काव्य ५ पर प्रवचन आचार्य यहाँ निश्चय-व्यवहार की बात करते हैं। अज्ञानी जीव लौकिक कार्यों की सिद्धि के लिए 'भक्तामर' पढ़कर कार्य का आरम्भ करते हैं, दुकान आदि खोलते हैं और ऐसा मानते हैं कि भक्तामर के पाठ से हमारा व्यापार-धन्धा अच्छा चलेगा, पैसा मिलेगा आदि। और भी ऐसी ही अनेक प्रकार की अपेक्षायें व आशायें रखते हैं, लेकिन ऐसी आशायें वृथा हैं, क्योंकि पुण्य के बिना धनादि अनुकूल संयोग नहीं मिलते और धनादि की आशा से पाठ करे तो नये पुण्यबन्ध के स्थान पर पूर्व का पुण्य क्षीण होता है और नया पाप ही बँधता है।
SR No.008342
Book TitleBhaktamara Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size385 KB
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