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________________ भक्तामर प्रवचन आचार्य महाराज को स्वयं भक्ति का उत्साह आया है, उसमें वे वीतराग के प्रति बहुमान करके स्वयं की वीतरागी रुचि का विस्तार करते हैं, उसमें भगवान तो मात्र निमित्त हैं। आत्मा का परमार्थ स्वभाव शुद्ध है, वह जिसे रुचा है, उसे भगवान के प्रति भक्ति का भाव आये बिना नहीं रहता। लोग कहते हैं - आप भगवान की भक्ति को धर्म तो कहते नहीं, मात्र पुण्य कहते हैं तो फिर ज्ञानी धर्मात्मा भक्ति किसलिए करते हैं ? भाई ! वह (भक्ति) पुण्य है, परन्तु जबतक पूर्ण वीतराग दशा न हो, तबतक ज्ञानी धर्मी जीवों को अन्तर में निश्चयरूप अभेद भक्ति की मुख्यता सहित भगवान के प्रति बहुमानरूप आनन्द आये बिना नहीं रहता, वह व्यवहारभक्ति है। निश्चय के भान बिना अनन्तबार कल्पवृक्ष के पुष्पों और मणिरत्नों के दीपक से साक्षात् समवशरण में जाकर भगवान की पूजा की, यहाँ उसकी बात नहीं है; परन्तु आत्मभान सहित भक्ति की बात है। जिसे निश्चयभक्ति प्रगट हुई हो, उसे भगवान के प्रति भक्ति का उत्साह आये बिना नहीं रहता। भक्ति में हिरणी की उपमा दी है कि - जैसे सिंह हिरणी के बच्चे को पकड़े तो हिरणी अपनी शक्ति को बिना विचारे ही उसका सामना करती है, उसीप्रकार हमें भी आपकी भक्ति का भाव जागृत हुआ है। हमें अपनी आत्मा का भान है और आप तो पूर्ण चैतन्य-प्रतिमा हो गये हो, इसलिए आपके प्रति भक्तिभाव आता है। यद्यपि आपके अनन्तगुणों का अनुसरण करने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है, फिर भी भक्ति का उत्साह बलपूर्वक आपकी भक्ति करवाता है। वहाँ पुराने पापों का संक्रमण होकर सहज पुण्य हो जाता है। यद्यपि वह पुण्यानुबंधी पुण्य बाँधता है, फिर भी ज्ञानी भक्त की दृष्टि में उसका कोई मूल्य नहीं है, बल्कि ज्ञानी की दृष्टि में उस पुण्य का निषेध ही वर्तता है। श्री मानतुङ्ग आचार्य को बंधन में डालने पर उन्होंने जब भक्तिकी, तब ताले टूटे; उसीप्रकार यह आत्मा अन्तर्मुख एकाग्रतारूप निश्चयभक्ति में उपयोग लगावे तो १४८ कर्मप्रकृतियों के बंधनरूपी ताले टूट जाते हैं। प्रथम वस्तुस्वरूप की यथार्थ श्रद्धा होने पर ही, आत्मभान द्वारा वे कर्म-बंधन टूटने लगते हैं। काव्य ६ अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहास-धाम त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् । यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति तच्चान-चारु-कलिका-निकरैकहेतुः ।।६।। हिन्दी काव्य मैं शठ सुधी हँसन को धाम, मुझ तव भक्ति बुलावै राम। ज्यों पिक अंब-कली-परभाव, मधु-ऋतुमधुर करै आराव ।।६।। अन्वयार्थ - (अल्प-श्रुतम्) मैं अल्पश्रुत का अभ्यासी, अल्पज्ञानी हूँ - शास्त्रों का विशेष जानकार नहीं हूँ [अतः ] (श्रुतवताम्) विद्वानों के द्वारा (परिहासधाम) हँसी का पात्र बनूँगा [ तथापि ] (माम् त्वद्भक्तिः एव बलात् मुखरीकुरुते) मुझको आपकी भक्ति ही बलपूर्वक वाचाल कर रही है, भक्ति करने के लिए विवश कर रही है। (किल) निश्चय ही (यत् कोकिलः) जो कोयल (मधौ मधुरं विरौति) वसंत ऋतु में मधुर स्वर में बोलती है, कूजती है या कुहुकती है (तत्-चाम्र-चारु-कलिका) उसमें सुन्दर आम्रवृक्षों के बौर [ मंजरी ] का (निकर-एक-हेतुः) समूह ही एकमात्र हेतु है - कारण है। [अन्यथा वह कोयल वसंत के सिवा अन्य ऋतु में क्यों नहीं बोलती ] जैसे कोयल को आम्रमंजरी मधर बोलने के लिए प्रेरणाकेन्द्र है. वैसे ही मझे आपकी भक्ति ही स्तुति करने के लिए प्रेरित करती है। काव्य ६ पर प्रवचन हे प्रभु ! मैं अल्पज्ञ हूँ, विद्वानों के समक्ष उपहास का पात्र हूँ - ऐसा कहने में आचार्य की निर्मानता-निरभिमानता झलकती है। हे नाथ ! मैं अल्पज्ञानी हूँ; तथापि मुझे अपने स्वरूप का भान वर्तता है, अपने पूर्णस्वभाव के प्रति अखण्ड प्रेम वर्तता है। पूर्ण वीतरागी नहीं हूँ, अतः मेरा उत्साह तुम्हारी तरफ भी ढलता है। जिसप्रकार वसंत-ऋतु में आम्रवृक्ष में
SR No.008342
Book TitleBhaktamara Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size385 KB
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