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पाठ पाँचवाँ]
| जीव-अजीव
हीरालाल - मेरा कितना अच्छा नाम है? ज्ञानचंद - अहा ! बहुत अच्छा नाम है! अरे भाई ! हीरा
कीमती अवश्य होता है, परन्तु है तो अजीव ही न? आखिर क्या तुम जीव (चेतन) से अजीव बनना
पसन्द करते हो? हीरालाल - अरे भाई ! यह जीव-अजीव क्या है ? ज्ञानचन्द - जीव ! जीव नहीं जानते ? तुम जीव ही तो हो। जो
ज्ञाता-द्रष्टा है, वही जीव है। जो जानता है, जिसमें
ज्ञान है. वही जीव है। हीरालाल - और अजीव ? ज्ञानचन्द - जिसमें ज्ञान नहीं है, जो जान नहीं सकता, वही
अजीव है। जैसे हम तुम जानते हैं, अत: जीव हैं।
हीरा, सोना, चाँदी, टेबल, कुर्सी जानते नहीं हैं,
अतः अजीव हैं। हीरालाल - जीव-अजीव की और क्या पहिचान है ? ज्ञानचन्द - जीव सुख व दु:ख
का अनुभव करता है, अजीव में सुख-दु:ख नहीं होता। हम तुम सुख-दु:ख का अनुभव करते है, ये (टेबल और शरीर) अजीव हैं। अत: जीव हैं। टेबल, कुर्सी सुख-दु:ख का अनुभव
नहीं करते, अत: अजीव हैं। हीरालाल - आँखें देखती हैं, कान सुनते हैं, शरीर में सुख-दु:ख
होता है, तो अपना शरीर तो जीव है न ? ज्ञानचन्द - नहीं भाई ! आँख थोड़े ही देखती है, कान थोड़े ही
सुनते हैं, देखने-सुनने वाला इनसे अलग कोई जीव (आत्मा) है। यदि आँख देखे और कान सुने तो मुर्दे (मरा शरीर) को भी देखना-सुनना चाहिए। इसीलिए तो कहा है कि शरीर अजीव है और आँख, कान आदि शरीर के ही हिस्से हैं, अत: वे
भी अजीव हैं। हीरालाल - अच्छा भाई ज्ञानचन्द, अब मैं समझ गया कि :
मैं जीव हैं। शरीर अजीव है।
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