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आत्मा आदि वस्तुएँ अरूपी हैं, अत: इन्द्रियाँ उनके
ज्ञान में निमित्त नहीं हैं। छात्र - ....पूजा पाठ को धर्मद्रव्य कहते होंगे और हिंसादिक
को अधर्म द्रव्य। अध्यापक - नहीं भाई ! वे धर्म और अधर्म अलग बात है; ये धर्म
और अधर्म तो द्रव्यों के नाम हैं जो कि सारे लोक में
तिल में तेल के समान फैले हुए हैं। छात्र - इनकी क्या परिभाषा है ? अध्यापक - जिस प्रकार जल मछली के चलने में निमित्त है, उसी
प्रकार स्वयं चलते हुए जीवों और पुद्गलों को चलने में जो निमित्त हो वही धर्म द्रव्य है तथा जैसे वृक्ष की छाया पथिकों को ठहरने में निमित्त होती है, उसी प्रकार गमन पूर्वक ठहरने वाले जीवों और पुद्गलों को
ठहरने में जो निमित्त हो, वही अधर्म द्रव्य है। छात्र -जब धर्म द्रव्य चलायेगा और अधर्म द्रव्य ठहरायेगा तो
जीवों को बड़ी परेशानी होगी? अध्यापक - वे कोई चलाते ठहराते थोड़े ही हैं। जब जीव और
पुद्गल स्वयं चलें या ठहरें तो मात्र निमित्त होते हैं। छात्र - आकाश तो नीला-नीला साफ दिखाई देता ही है, उसे
क्या समझना? अध्यापक - नहीं, अभी तुम्हें बताया था कि नीलापन-पीलापन तो
पुद्गल की पर्याय है। आकाश तो अरूपी है, उसमें कोई रंग नहीं होता। जो सब द्रव्यों के रहने में निमित्त हो, वही आकाश है।
छात्र - यह आकाश ऊपर है न? अध्यापक - यह तो सब जगह है, ऊपर-नीचे, अगल में, बगल में।
दुनियाँ की ऐसी कोई जगह नहीं जहाँ आकाश न हो।
सब द्रव्य आकाश में ही हैं। छात्र - काल तो समय को ही कहते हैं या कुछ और बात है? अध्यापक - काल का दूसरा नाम समय भी है, किन्तु काल - जीव,
पुद्गल की तरह एक द्रव्य भी है। उसमें जो प्रतिसमय अवस्था होती है उसका नाम समय है। यह काल द्रव्य जगत के समस्त पदार्थों के परिणमन में निमित्त मात्र
होता है। छात्र - अच्छा तो ये द्रव्य हैं कुल कितने ? अध्यापक - धर्म, अधर्म और आकाश तो एक-एक ही हैं, पर काल
द्रव्य असंख्य हैं तथा जीव द्रव्य तो अनन्त हैं एवं पुद्गल जीवों से भी अनन्त गुणे हैं अर्थात्
अनन्तानंत हैं। छात्र - इन द्रव्यों के अलावा और कुछ नहीं है दुनिया में ? अध्यापक - इनके अलावा कोई दुनियाँ ही नहीं है। छह द्रव्यों के
समूह को विश्व कहते हैं और विश्व को ही दुनियाँ
कहते हैं। छात्र - तो इस विश्व को बनाया किसने ? अध्यापक - यह तो अनादि-अनन्त स्वनिर्मित है, इसे बनाने वाला
कोई नहीं है। छात्र - और भगवान कौन हैं ? अध्यापक - भगवान दुनियाँ को जानने वाला है, बनाने वाला नहीं।
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