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सूत्रपाहुड
अर्थ – जिसके मत में लिंग जो भेष उसके परिग्रह का अल्प तथा बहुत ग्रहण करना कहा है, वह मत तथा उसका श्रद्धावान पुरुष गर्हित है, निंदायोग्य है, क्योंकि जिनवचन में परिग्रह रहित ही निरागार है, निर्दोष मुनि है, इसप्रकार कहा है।
भावार्थ - श्वेताम्बरादिक के कल्पित सूत्रों में भेष में अल्प बहुत परिग्रह का ग्रहण कहा है, वह सिद्धान्त तथा उसके श्रद्धानी निंद्य हैं। जिनवचन में परिग्रह रहित को ही निर्दोष मुनि कहा है।।१९।। आगे कहते हैं कि जिनवचन में ऐसा मुनि वन्दने योग्य कहा है -
पंचमहव्वयजुत्तो तिहिं गुत्तिहिं जो स संजदो होई। णिग्गंथमोक्खमग्गो सो होदि हु वंदणिज्जो य ।।२०।। पंचमहाव्रतयुक्त: तिसृभिः गुप्तिभिः यः ससंयतोभवति।
निर्ग्रथमोक्षमार्गः स भवति हि वन्दनीयः च ।।२०।। अर्थ - जो मुनि पंच महाव्रत युक्त हो और तीन गुप्ति संयुक्त हो वह संयत है, संयमवान है और निर्ग्रन्थ मोक्षमार्ग है तथा वह ही प्रगट निश्चय से वंदने योग्य है।
भावार्थ - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँच महाव्रत सहित हो और मन, वचन, कायरूप तीन गुप्ति सहित हो वह संयमी है, वह निग्रंथ स्वरूप है, वह ही वंदने योग्य है। जो कुछ अल्प बहुत परिग्रह रखे सो महाव्रती संयमी नहीं है, यह मोक्षमार्ग नहीं है और गृहस्थ के समान भी नहीं है ।।२०।।
आगे कहते हैं कि पूर्वोक्त एक भेष तो मुनि का कहा, अब दूसरा भेष उत्कृष्ट श्रावक का इसप्रकार कहा है -
दुइयं च उत्त लिंगं उक्किटुं अवरसावयाणं च। भिक्खं भमेइ पत्ते समिदीभासेण मोणेण ।।२१।।
द्वितीयं चोक्तं लिंगं उत्कृष्टं अवरश्रावकाणांच।
महाव्रत हों पाँच गुप्ती तीन से संयुक्त हों। निरग्रन्थ मुक्ती पथिक वे ही वंदना के योग्य हैं ।।२०।। जिनमार्ग में उत्कृष्ट श्रावक लिंग होता दूसरा। भिक्षा ग्रहण कर पात्र में जो मौन से भोजन करे ।।२१।।