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अष्टपाहुड
श्वेताम्बर कहते हैं कि भव स्थिति पूरी होने पर सब अवस्थाओं में केवलज्ञान उत्पन्न होता है तो यह कहना मिथ्या है, जिनसूत्र का यह वचन नहीं है, इन श्वेताम्बरों ने कल्पित सूत्र बनाये हैं, उनमें लिखा होगा। फिर यहाँ श्वेताम्बर कहते हैं कि जो तुमने कहा वह तो उत्सर्गमार्ग है, अपवाद मार्ग में वस्त्रादिक उपकरण रखना कहा है, जैसे तुमने धर्मोपकरण कहे वैसे ही वस्त्रादिक भी धर्मोपकरण हैं, जैसे क्षुधा की बाधा आहार से मिटाकर संयम साधते हैं, वैसे ही शीत आदि की बाधा वस्त्र आदि से मिटाकर संयम साधते हैं, इसमें विशेष क्या ? इनको कहते हैं कि इसमें तो बड़े दोष आते हैं तथा कोई कहते हैं कि काम विकार उत्पन्न हो तब स्त्री सेवन करे तो इसमें क्या विशेष ? इसलिए इसप्रकार कहना युक्त नहीं है ।
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क्षुधा की बाधा तो आहार से मिटाना युक्त है, आहार के बिना देह अशक्त हो जाता है तथा छूट जावे तो अपघात का दोष आता है, परन्तु शीत आदि की बाधा तो अल्प है यह तो ज्ञानाभ्यास आदि के साधन ही मिट जाती है। अपवादमार्ग कहा वह तो जिसमें मुनिपद रहे ऐसी क्रिया करना तो अपवादमार्ग है, परन्तु जिस परिग्रह से तथा जिस क्रिया से मुनिपद भ्रष्ट होकर गृहस्थ के समान हो जावे वह तो अपवादमार्ग नहीं है। दिगम्बर मुद्रा धारण करके कमंडलु पीछी सहित आहार-विहार उपदेशादिक में प्रवर्ते वह अपवादमार्ग है और सब प्रवृत्ति को छोड़कर ध्यानस्थ हो शुद्धोपयोग में लीन हो जाने को उत्सर्गमार्ग कहा है । इसप्रकार मुनिपद अपने से सधता न जानकर किसलिए शिथिलाचार का पोषण करना ? मुनिपद की सामर्थ्य न हो तो श्रावकधर्म ही का पालन करना, परम्परा से इसी से सिद्धि हो जावेगी । जिनसूत्र की यथार्थ श्रद्धा रखने से सिद्धि है, इसके बिना अन्य क्रिया सब ही संसारमार्ग है, मोक्षमार्ग नहीं है, इसप्रकार
जानना ।। १८ ।।
आगे इस ही का समर्थन करते हैं
जस्स परिग्गहगहणं अप्पं बहुयं च हवइ लिंगस्स । सो गरहिउ जिणवयणे परिगहरहिओ णिरायारो ।।१९।।
यस्य परिग्रहग्रहणं अल्पं बहुकं च भवति लिंगस्य । स गर्ह्यः जिनवचने परिग्रहरहितः निरागारः । । १९ ।।
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थोड़ा-बहुत भी परिग्रह हो जिस श्रमण के पास में वह निन्द्य है निर्ग्रन्थ होते जिनश्रमण आचार में ।।१९।।