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अष्टपाहुड करोड़ पद हैं। तेरहवाँ क्रियाविशाल नाम का पूर्व है, इसमें संगीतशास्त्र, छन्द, अलंकारादिक तथा चौसठ कला, गर्भाधानादि चौरासी क्रिया, सम्यग्दर्शन आदि एक सौ आठ क्रिया, देववंदनादिक पच्चीस क्रिया, नित्य नैमित्तिक क्रिया इत्यादि का वर्णन है, इसके पद नव करोड़ हैं।
चौदहवाँ त्रिलोकबिंदुसार नाम का पूर्व है, इसमें तीनलोक का स्वरूप और बीजगणित का स्वरूप तथा मोक्ष का स्वरूप तथा मोक्ष की कारणभूत क्रिया का स्वरूप इत्यादि का वर्णन है, इसके पद बारह करोड़ पचास लाख हैं। ऐसे चौदह पूर्व हैं, इनके सब पदों का जोड़ पिच्याणवे करोड़ पचास लाख है।
बारहवें अंग का पाँचवाँ भेद चूलिका है, इसके पाँच भेद हैं, इनके पद दो करोड़ नव लाख निवासी हजार दो सौ हैं। इसके प्रथम भेद जलगता चूलिका में जल का स्तंभन करना, जल में गमन करना । अग्निगता चूलिका में अग्नि स्तंभन करना, अग्नि में प्रवेश करना, अग्नि का भक्षण करना इत्यादि के कारणभूत मंत्र तंत्रादिक का प्ररूपण है, इसके पद दो करोड़ नव लाख, निवासी हजार दो सौ हैं। इतने इतने ही पद अन्य चार चूलिका के जानने । दूसरा भेद स्थलगता चूलिका है, इसमें मेरु पर्वत भूमि इत्यादि में प्रवेश करना, शीघ्र गमन करना इत्यादि क्रिया के कारण मंत्र तंत्र तपश्चरणादिक का प्ररूपण है।
तीसरा भेद मायागता चूलिका है, इसमें मायामयी इन्द्रजाल विक्रिया के कारणभूत मंत्र तंत्र तपश्चरणादिक का प्ररूपण है। चौथा भेद रूपगता चूलिका है, इसमें सिंह, हाथी, घोड़ा, बैल, हरिण इत्यादि अनेक प्रकार के रूप बना लेने के कारणभूत मंत्र, तंत्र, तपश्चरण आदि का प्ररूपण है तथा चित्राम. काष्ठलेपादिक का लक्षण वर्णन है और धात रसायन का निरूपण है। पाँचवाँ भेद आकाशगता चलिका है. इसमें आकाश में गमनादिक के कारणभत मंत्र-यंत्र-तंत्रादिक का प्ररूपण है। ऐसे बारहवाँ अंग है। इसप्रकार से बारह अंग सूत्र हैं। ___ अंगबाह्य श्रुत के चौदह प्रकीर्णक हैं। प्रथम प्रकीर्णक सामायिक नाम का है, इसमें नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के भेद से छह प्रकार इत्यादि सामायिक का विशेषरूप से वर्णन है। दूसरा चतुर्विंशतिस्तव नाम का प्रकीर्णक है, इसमें चौबीस तीर्थंकरों की महिमा का वर्णन है। तीसरा वंदना नाम का प्रकीर्णक है, इसमें एक तीर्थंकर के आश्रय से वन्दना-स्तुति का वर्णन है।
चौथा प्रतिक्रमण नाम का प्रकीर्णक है, इसमें सात प्रकार के प्रतिक्रमण का वर्णन है। पाँचवाँ वैनयिक नाम का प्रकीर्णक है, इसमें पाँच प्रकार के विनय का वर्णन है। छठा कृतिकर्म नाम का प्रकीर्णक है, इसमें अरहंत आदि की वंदना की क्रिया का वर्णन है। सातवाँ दशवैकालिक नाम का प्रकीर्णक है, इसमें मुनि का आचार, आहार की शुद्धता आदि का वर्णन है। आठवाँ उत्तराध्ययन नाम का प्रकीर्णक है, इसमें परीषह उपसर्ग को सहने के विधान का वर्णन है।