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अष्टपाहुड
आगे कहते हैं कि विषयों की आसक्ति से चतुर्गति में दुःख ही पाते हैं -
णरएसु वेयणाओ तिरिक्खए माणवेसु दुक्खाई। देवेसु वि दोहग्गं लहंति विसयासिया जीवा ।।२३।।
नरकेषु वेदना: तिर्यक्षु मानुषेषु दुःखानि ।
देवेषु अपि दौर्भाग्यं लभंते विषयासक्ता जीवाः ।।२३।। अर्थ – विषयों में आसक्त जीव नरक में अत्यंत वेदना पाते हैं, तिर्यंचों में तथा मनुष्यों में दु:खों को पाते हैं और देवों में उत्पन्न हों तो वहाँ भी दुर्भाग्यपना पाते हैं, नीच देव होते हैं, इसप्रकार चारों गतियों में दुःख ही पाते हैं।
भावार्थ - विषयासक्त जीवों को कहीं भी सुख नहीं है, परलोक में तो नरक आदिक के दुःख पाते ही हैं, परन्तु इस लोक में भी इनके सेवन करने में आपत्ति व कष्ट आते ही हैं तथा सेवन से आकुलता; दुःख ही है, यह जीव भ्रम से सुख मानता है, सत्यार्थ ज्ञानी तो विरक्त ही होता है।।२३।। आगे कहते हैं कि विषयों को छोड़ने से कुछ भी हानि नहीं है -
तुसधम्मंतबलेण य जह दव्वंण हिणराण गच्छेदि। तवसीलमंत कुसली खवंति विसयं विस व खलं ।।२४।। तुषधमद्बलेन च यथा द्रव्यं न हि नराणां गच्छति।
तप:शीलमंत: कुशला: क्षिपंते विषयं विषमिव खलं ।।२४।। अर्थ - जैसे तुषों के चलाने से, उड़ाने से मनुष्य का कुछ द्रव्य नहीं जाता है वैसे ही तपस्वी और शीलवान् पुरुष विषयों को खल की तरह क्षेपते हैं, दूर फेंक देते हैं।
भावार्थ - जो ज्ञानी तप शील सहित हैं उनके इन्द्रियों के विषय खल की तरह हैं, जैसे ईख का रस निकाल लेने के बाद खल नीरस हो जाते हैं तब वे फेंक देने के योग्य ही हैं, वैसे ही विषयों को जानना. रस था वह तो ज्ञानियों ने जान लिया तब विषय तो खल के समान रहे. उनके त्यागने
अरे विषयासक्त जन नर और तिर्यग् योनि में। दुःख सहें यद्यपि देव हों पर दुःखी हों दुर्भाग्य से ।।२३।। अरे कुछ जाता नहीं तुष उड़ाने से जिसतरह । विषय सुख को उड़ाने से शीलगुण उड़ता नहीं ।।२४।।