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अष्टपाहुड
अर्थ - जो लिंग धारण करके स्त्रियों के समूह के प्रति जो निरंतर राग-प्रीति करता है और पर को (कोई अन्य निर्दोष हैं उनको) दोष लगाता है वह दर्शनज्ञान रहित है, ऐसी लिंगी तिर्यंचयोनि है, पशु समान है, अज्ञानी है, श्रमण नहीं है।
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भावार्थ - लिंग धारण करनेवाले के सम्यग्दर्शन- ज्ञान होता है और परद्रव्यों से रागद्वेष नहीं करनेवाला चारित्र होता है । वहाँ जो स्त्रीसमूह से तो राग- प्रीति करता है और अन्य के दोष लगाकर द्वेष करता है व्यभिचारी का सा स्वभाव है तो उसके कैसा दर्शन - ज्ञान ? और कैसा चारित्र ? लिंग धारण करके लिंग के योग्य आचरण करना था वह नहीं किया, तब अज्ञानी पशु समान ही है, श्रमण कहलाता है वह आप (स्वयं) भी मिथ्यादृष्टि है और अन्य को भी मिथ्यादृष्टि करनेवाला है, ऐसे का प्रसंग भी युक्त नहीं है ।। १७।।
आगे फिर कहते हैं
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पव्वज्जहीणगहिणं णेहं सीसम्मि वट्टदे बहुसो । आयारविणयहीणो तिरिक्खजोणी ण सो समणो ।। १८ ।।
प्रव्रज्याहीनगृहिणि स्नेहं शिष्ये वर्त्तते बहुश: ।
आचारविनयहीनः तिर्यग्योनिः न सः श्रमणः ।। १८ ।।
अर्थ - जिस लिंगी ‘प्रव्रज्या हीन' अर्थात् दीक्षा रहित गृहस्थों पर और शिष्यों में बहुत स्नेह रखता है और आचार अर्थात् मुनियों की क्रिया और गुरुओं के विनय से रहित होता है वह तिर्यंचयोनि है, पशु है, अज्ञानी है, श्रमण नहीं है।
भावार्थ - गृहस्थों से तो बारम्बार लालपाल रक्खे और शिष्यों से बहुत स्नेह रक्खे तथा मुनि की प्रवृत्ति आवश्यक आदि कुछ करे नहीं, गुरुओं के प्रतिकूल रहे, विनयादिक करे नहीं, ऐसा लिंगी पशु समान है, उसको साधु नहीं कहते हैं ।। १८ ।।
आगे कहते हैं कि जो लिंग धारण करके पूर्वोक्त प्रकार प्रवर्तता है, वह श्रमण नहीं है, ऐसा संक्षेप में कहते हैं
एवं सहिओ मुणिवर संजदमज्झम्मि वट्टदे णिच्चं ।
श्रावकों में शिष्यगण में नेह रखते श्रमण जो ।
हीन विनयाचार से वे श्रमण नहीं तिर्यंच हैं ।। १८ ।। इस तरह वे भ्रष्ट रहते संयतों के संघ में। रे जानते बहुशास्त्र फिर भी भाव से तो नष्ट हैं ।। १९ ।।