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लिंगपाहुड
है ।। १५ ।।
आगे कहते हैं कि जो वनस्पति आदि स्थावरजीवों की हिंसा से कर्मबंध होता है उसको न गिनता स्वच्छंद होकर प्रवर्तता है, वह श्रमण नहीं है।
बंधो णिरओ संतो सस्सं खंडेदि तह य वसुहं पि ।
छिंददि तरुगण बहुसो तिरिक्खजोणी ण सो समणो ।। १६ ।। बंध नीरजाः सन् सस्यं खंडयति तथा च वसुधामपि । छिनत्ति तरुगणं बहुश: तिर्यग्योनिः न स: श्रमण: ।। १६ ।।
अर्थ - जो लिंग धारण करके वनस्पति आदि की हिंसा से बंध होता है, उसको दोष न मानकर बंध को नहीं गिनता हुआ सस्य अर्थात् अनाज को कूटता है और वैसे ही वसुधा अर्थात् पृथ्वी को खोदता है तथा बारबार तरुगण अर्थात् वृक्षों के समूह को छेदता है, ऐसा लिंगी तिर्यंचयोनि है, पशु है, अज्ञानी है, श्रमण नहीं है ।
भावार्थ – वनस्पति आदि स्थावर जीव जिनसूत्र में कहे हैं और इनकी हिंसा से कर्मबंध होना भी कहा है उसको निर्दोष समझता हुआ कहता है कि इसमें क्या दोष है ? क्या बंध है ? इसप्रकार मानता हुआ तथा वैद्य कर्मादिक के निमित्त औषधादिक को, धान्य को, पृथ्वी को तथा वृक्षों को खंडता है, खोदता है, छेदता है वह अज्ञानी पशु है, लिंग धारण करके श्रमण कहलाता है, वह श्रमण नहीं है ।। १६ ।
आगे कहते हैं कि जो लिंग धारण करके स्त्रियों से राग करता है वह पर को दूषण देता है, वह श्रमण नहीं है
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रागं करेदि णिच्चं महिलावग्गं परं च दूसेदि । दंसणणाणविहीणो तिरिक्खजोणी ण सो समणो ।। १७ ।।
रागं करोति नित्यं महिलावर्गं परं च दूषयति । दर्शनज्ञानविहीनः तिर्यंग्योनिः न सः श्रमणः । । १७ ।।
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जो बंधभय से रहित पृथ्वी खोदते तरु छेदते । अर हरित भूमी रोंधते वे श्रमण नहीं तिर्यंच हैं ।। १६ ।। राग करते नारियों से दूसरों को दोष दें । सद्ज्ञान-दर्शन रहित हैं वे श्रमण नहिं तिर्यंच है ।। १७ ।।