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मोक्षपाहुड
२६३ रहित ऐसा निश्चय चारित्र कहा है । चौदहवें गुणस्थान के अंतसमय में पूर्ण चारित्र होता है, उसमें लगते ही मोक्ष होता है - ऐसा सिद्धान्त है ।।४२।।
आगे कहते हैं कि इसप्रकार रत्नत्रयसहित होकर तप संयम समिति को पालते हुए शुद्धात्मा का ध्यान करनेवाला मुनि निर्वाण को प्राप्त करता है -
जो रयणत्तयजुत्तो कुणइ तवं संजदो ससत्तीए। सो पावइ परमपयं झायंतो अप्पयं सुद्धं ।।४३।।
यः रत्नत्रययुक्तः करोति तप: संयतः स्वशक्त्या।
सः प्राप्नोति परमपदं ध्यायन् आत्मानं शुद्धम् ।।४३।। अर्थ – जो मुनि रत्नत्रयसंयुक्त होता हुआ संयमी बनकर अपनी शक्ति के अनुसार तप करता है, वह शुद्ध आत्मा का ध्यान करता हुआ परमपद निर्वाण को प्राप्त करता है।
भावार्थ - जो मुनि संयमी, पाँच महाव्रत पाँच समिति, तीन गुप्ति, यह तेरह प्रकार का चारित्र वही प्रवृत्तिरूप व्यवहार चारित्र संयम है, उसको अंगीकार करके और पूर्वोक्त प्रकार निश्चय चारित्र से युक्त होकर अपनी शक्ति के अनुसार उपवास कायक्लेशादि बाह्य तप करता है वह मुनि अंतरंग तप ध्यान के द्वारा शुद्ध आत्मा का एकाग्र चित्त करके ध्यान करता हुआ निर्वाण को प्राप्त करता है।।४३।।
(नोंध - जो छठवें गुणस्थान के योग्य स्वाश्रयरूप निश्चय रत्नत्रय सहित है उसी को व्यवहार संयम और व्रतादि को व्यवहार चारित्र माना है।) आगे कहते हैं कि ध्यानी मुनि ऐसा बनकर परमात्मा का ध्यान करता है -
तिहि तिण्णि धरवि णिच्चं तियरहिओ तह तिएण परियरिओ। दोदोसविप्पमुक्को परमप्पा झायए जोई।।४४।। त्रिभिः त्रीन् धृत्वा नित्यं त्रिकरहित: तथा त्रिकेण परिकरितः।
रतनत्रय से युक्त हो जो तप करे संयम धरे। वह ध्यान धर निज आतमा का परमपद को प्राप्त हो॥४३।। रुष-राग का परिहार कर त्रययोग से त्रयकाल में। त्रयशल्य विरहित रतनत्रय धर योगि ध्यावे आत्मा ।।४४।।