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मोक्षपाहुड
? इसलिए मेरे मौन है ।। २९ ।।
आगे कहते हैं कि इसप्रकार ध्यान करने से सब कर्मों के आस्रव का निरोध करके संचित कर्मों
का नाश करता है -
सव्वासवणिरोहेण कम्मं खवदि संचिदं ।
जोयत्थो जाए जोई जिणदेवेण भासियं ।। ३० ।। सर्वास्रवनिरोधेन कर्म क्षपयति संचितम् ।
योगस्थ: जानाति योगी जिनदेवेन भाषितम् ।। ३०॥
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अर्थ – योग ध्यान में स्थित होता हुआ योगी मुनि सब कर्मों के आस्रव का निरोध करके संवरयुक्त होकर पहिले के बाँधे हुए कर्म जो संचयरूप हैं, उनका क्षय करता है इसप्रकार निव ने कहा है, वह जानो ।
भावार्थ - ध्यान से कर्म का आस्रव रुकता है इससे आगामी बंध नहीं होता है और पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा होती है तब केवलज्ञान उत्पन्न करके मोक्ष प्राप्त होता है, यह आत्मा के ध्यान का माहात्म्य है ||३०||
आगे कहते हैं कि जो व्यवहार में तत्पर है, उसके यह ध्यान नहीं होता है
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जो सुत्तो ववहारे सो जोई जग्गए सकज्जम्मि ।
जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणो कज्जे ।। ३१ ।।
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यः सुप्तः व्यवहारे सः योगी जागर्ति स्वकार्ये ।
य: जागर्ति व्यवहारे सः सुप्तः आत्मनः कार्ये ।। ३१ ।।
अर्थ – जो योगी ध्यानी मुनि व्यवहार में सोता है वह अपने स्वरूप के कार्य में जागता है और व्यवहार में जागता है वह अपने आत्मकार्य में सोता है।
भावार्थ - मुनि के संसारी व्यवहार तो कुछ है नहीं और यदि है तो मुनि कैसा ? वह तो पाखंडी है। धर्म का व्यवहार संघ में रहना, महाव्रतादिक पालना ऐसे व्यवहार में भी तत्पर नहीं है, सब प्रवृत्तियों की निवृत्ति करके ध्यान करता है वह व्यवहार में सोता हुआ कहलाता है और अपने आत्मस्वरूप में लीन होकर देखता है, जानता है, वह अपने आत्मकार्य में जागता है, परन्तु जो इस व्यवहार में तत्पर है, सावधान है, स्वरूप की दृष्टि नहीं है वह व्यवहार में जागता हुआ
१. पाठान्तर: - जिणवरिंदेण ।
जो सो रहा व्यवहार में वह जागता निज कार्य में ।
जो जागता व्यवहार में वह सो रहा निज कार्य में ।। ३१ ।।