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अष्टपाहुड मौनवतेन योगी योगस्थः द्योतयति
अ । म । न म . ।। २ ८ ।। अर्थ – योगी ध्यानी मुनि है, वह मिथ्यात्व, अज्ञान, पाप-पुण्य इनको मन-वचन-काय से छोड़कर मौनव्रत के द्वारा ध्यान में स्थित होकर आत्मा का ध्यान करता है।
भावार्थ - कई अन्यमती योगी ध्यानी कहलाते हैं इसलिए जैनलिंगी भी किसी द्रव्यलिंग के धारण करने से ध्यानी माना जाय तो उसके निषेध के निमित्त इसप्रकार कहा है कि मिथ्यात्व और अज्ञान को छोड़कर आत्मा के स्वरूप को यथार्थ जानकर सम्यक् श्रद्धान तो जिसने नहीं किया, उसके मिथ्यात्व, अज्ञान तो लगा रहा तब ध्यान किसका हो तथा पुण्य-पाप दोनों बंधस्वरूप हैं इनमें प्रीति अप्रीति रहती है जबतक मोक्ष का स्वरूप भी जाना नहीं है तब ध्यान किसका हो और (सम्यक् प्रकार स्वरूप गुप्त स्व-अस्ति में ठहकर) मन-वचन-काय की प्रवृत्ति छोड़कर मौन न करे तो एकाग्रता कैसे हो ? इसलिए मिथ्यात्व, अज्ञान, पुण्य, पाप, मन, वचन, काय की प्रवृत्ति छोड़ना ही ध्यान में युक्त कहा है। इसप्रकार आत्मा का ध्यान करने से मोक्ष होता है ।।२८।। आगे ध्यान करनेवाला मौन धारण करके रहता है वह क्या विचार करता है, यह कहते हैं
जं मया दिस्सदे रूवं तं ण जाणादि सव्वहा । जाणगं दिस्सदे 'णेव तम्हा जंपेमि केण हं।।२९।।
यत् मया दृश्यते रूपं तत् न जानाति सर्वथा।
ज्ञायकं दृश्यतेन तत् तस्मात् जल्पामि केन अहम् ।।२९।। अर्थ - जिस रूप को मैं देखता हूँ वह रूप मूर्तिक वस्तु है, जड़ है, अचेतन है, सब प्रकार से कुछ भी जानता नहीं है और मैं ज्ञायक हूँ, अमूर्तिक हूँ। यह तो जड़ अचेतन है, सब प्रकार से कुछ भी जानता नहीं है, इसलिए मैं किससे बोलूँ ?
भावार्थ - यदि दूसरा कोई परस्पर बात करनेवाला हो तब परस्पर बोलना संभव है, किन्तु आत्मा तो अमूर्तिक है उसको वचन बोलना नहीं है और जो रूपी पुद्गल है वह अचेतन है, किसी को जाजता नहीं, देखता नहीं। इसलिए ध्यान करनेवाला विचारता है कि मैं किससे बोलूँ
दिखाई दे जो मुझे वह रूप कुछ जाने नहीं। मैं करूँ किससे बात मैं तो एक ज्ञायकभाव हूँ।।२९ ।। सर्वानवों के रोध से संचित करम खप जाय सब। जिनदेव के इस कथन को योगस्थ योगी जानते ।।३०।।