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भावपाहुड
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बलसौख्यज्ञानदर्शनानि चत्वारोऽपि प्रकटागुणाभवंति।
नष्टे घातिचतुष्के लोकालोकं प्रकाशयति ।।१५०।। अर्थ – पूर्वोक्त चार घातिया कर्मों का नाश होने पर अनन्त ज्ञान-दर्शन-सुख और बल (वीर्य) ये चार गुण प्रगट होते हैं। जब जीव के ये गुण की पूर्ण निर्मल दशा प्रकट होती है, तब लोकालोक को प्रकाशित करता है।
भावार्थ -घातिया कर्मों का नाश होने पर अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान,अनन्तसुख और अनन्तवीर्य ये 'अनन्तचतुष्टय' प्रकट होते हैं। अनन्त दर्शनज्ञान से छह द्रव्यों से भरे हुए इस लोक में अनन्तानन्त जीवों को, इनसे भी अनन्तानन्तगुणे पुद्गलों को तथा धर्म-अधर्म-आकाश ये तीन द्रव्य और असंख्यात कालाणु इन सब द्रव्यों की अतीत अनागत और वर्तमानकालसंबंधी अनन्तपर्यायों को भिन्न-भिन्न एकसमय में स्पष्ट देखता है और जानता है। अनन्तसुख से अत्यंत तृप्तिरूप है और अनन्तशक्ति द्वारा अब किसी भी निमित्त से अवस्था पलटती (बदलती) नहीं है। ऐसे अनंत चतुष्टयरूप जीव का निजस्वभाव प्रकट होता है, इसलिए जीव के स्वरूप का ऐसा परमार्थ से श्रद्धान करना वह ही सम्यग्दर्शन है ।।१५०।। ___ आगे जिसके अनन्तचतुष्टय प्रकट होते हैं, उसको परमात्मा कहते हैं। उसके अनेक नाम हैं, उनमें से कुछ प्रकट कर कहते हैं -
णाणी सिव परमेट्ठी सव्वण्हू विण्हू चउमुहो बुद्धो। अप्पो वि य परमप्पो कम्मविमुक्को य होइ फुडं ।।१५१।। ज्ञानी शिव: परमेष्ठी सर्वज्ञः विष्णुः चतुर्मुखः बुद्धः।
आत्मा अपि च परमात्मा कर्मविमुक्तः च भवति स्फुटम् ।।१५१।। अर्थ – परमात्मा ज्ञानी है, शिव है, परमेष्ठी है, सर्वज्ञ है, विष्णु है, चतुर्मुखब्रह्मा है, बुद्ध है, आत्मा है, परमात्मा है और कर्मरहित है, यह स्पष्ट जानो।
भावार्थ - 'ज्ञानी कहने से सांख्यमती ज्ञानरहित उदासीन चैतन्यमात्र मानता है उसका निषेध है। 'शिव' है अर्थात् सब कल्याणों से परिपूर्ण है, जैसा सांख्यमती नैयायिक वैशेषिक मानते हैं, वैसा नहीं है। ‘परमेष्ठी' है सो परम (उत्कृष्ट) पद में स्थित है अथवा उत्कृष्ट इष्टत्व स्वभाव है।
घन-घाति कर्म विमुक्त अर त्रिभुवनसदन संदीप जो। अर दोष अष्टादश रहित वे देव उत्तम बोधि दें ।।१५२।।