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अष्टपाहुड कैसे होता, इसलिए अजीव का स्वरूप कहा है, वैसा ही उसका श्रद्धान आगम अनुसार करना। इसप्रकार अजीव पदार्थ का स्वरूप जानकर और इन दोनों के संयोग से अन्य आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष - इन भावों की प्रवृत्ति होती है। इनका आगम के अनुसार स्वरूप जानकर श्रद्धान करने से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है, इसप्रकार जानना चाहिए ।।१४८।। __ आगे कहते हैं कि यह जीव 'ज्ञान-दर्शन उपयोगमयी है किन्तु अनादि पौद्गलिक कर्म के संयोग से इसके ज्ञान-दर्शन की पूर्णता नहीं होती है, इसलिए अल्प ज्ञान-दर्शन अनुभव में आता है और उमसें भी अज्ञान के निमित्त से इष्ट-अनिष्ट बुद्धिरूप राग-द्वेष-मोह-भाव के द्वारा ज्ञानदर्शन में कलुषतारूप सुख-दुःखादिक भाव अनुभव में आते हैं। यह जीव निजभावनारूप सम्यग्दर्शन को प्राप्त होता है तब ज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्य के घातक कर्मों का नाश करता है, ऐसा दिखाते हैं
दंसणणाणावरणं मोहणियं अंतराइयं कम्मं । णिट्ठवइ भवियजीवो सम्मं जिणभावणाजुत्तो ।।१४९।।
दर्शनज्ञानावरणं मोहनीयं अन्तरायकं कर्म।
निष्ठापयति भव्यजीवा: सम्यक् जिनभावनायुक्तः।।१४९।। अर्थ – सम्यक् प्रकार जिनभावना से युक्त भव्यजीव है वह ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय, इन चार घातिया कर्मों का निष्ठापन करता है अर्थात् सम्पूर्ण अभाव करता है।
भावार्थ - दर्शन का घातक दर्शनावरण कर्म है, ज्ञान का घातक ज्ञानावरण कर्म है, सुख का घातक मोहनीय कर्म है, वीर्य का घातक अन्तराय कर्म है। इनका नाश कौन करता है ? सम्यक् प्रकार जिनभावना भाकर अर्थात् जिन आज्ञा मानकर जीव-अजीव आदि तत्त्व का यथार्थ निश्चय कर श्रद्धावान हआ हो वह जीव करता है। इसलिए जिन आज्ञा मान कर यथार्थ श्रद्धान करने का यह उपदेश है।।१४८॥ आगे कहते हैं कि इन घातिया कर्मों का नाश होने पर 'अनन्तचतुष्टय' प्रकट होते हैं -
बलसोक्खणाणदंसण चत्तारि वि पयडा गुणा होति । णढे घाइचउक्के लोयालोयं पयासेदि ।।१५०।।
यह आत्मा परमात्मा शिव विष्णु ब्रह्मा बुद्ध है। ज्ञानि है परमेष्ठि है सर्वज्ञ कर्म विमुक्त है।।१५१।।