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अष्टपाहुड
आगे इसी अर्थ को दृढ़ करते हैं -
मिच्छत्तछण्णदिट्ठी दुद्धीए दुम्मएहिं दोसेहिं । धम्मं जिणपण्णत्तं अभव्वजीवो ण रोचेदि ।।१३९।।
मिथ्यात्वछन्नदृष्टि: दुर्धिया दुर्मतैः दोषैः ।
धर्मं जिनप्रज्ञप्तं अभव्यजीव: न रोचयति ।।१३९।। अर्थ - दुर्मत जो सर्वथा एकान्ती मत, उनसे प्ररूपित अन्यमत, वे ही हुए दोष, उनके द्वारा अपनी दुर्बुद्धि से (मिथ्यात्व से) आच्छादित है बुद्धि जिसकी, ऐसा अभव्यजीव है उसे जिनप्रणीत धर्म नहीं रुचता है, वह उसकी श्रद्धा नहीं करता है, उसमें रुचि नहीं करता है।
भावार्थ - मिथ्यात्व के उपदेश से अपनी दुर्बुद्धि द्वारा जो मिथ्यादृष्टि है उसको जिनधर्म नहीं रुचता है, तब ज्ञात होता है कि ये अभव्यजीव के भाव हैं। यथार्थ अभव्यजीव को तो सर्वज्ञ जानते हैं, परन्तु ये अभव्यजीव के चिह्न हैं, इनसे परीक्षा द्वारा जाना जाता है ।।१३९।। आगे कहते हैं कि ऐसे मिथ्यात्व के निमित्त से दुर्गति का पात्र होता है -
कुच्छियधम्मम्मि रओ कुच्छियपासंडिभत्तिसंजुत्तो। कुच्छियतवं कुणंतो कुच्छियगइभायणो होइ ।।१४०।।
कुत्सितधर्मे रत: कुत्सितपाषंडिभक्तिसंयुक्तः।
कुत्सिततप: कुर्वन् कुत्सितगतिभाजनं भवति ।।१४०।। अर्थ – आचार्य कहते हैं कि जो कुत्सित (निंद्य) मिथ्याधर्म में रत (लीन) है, जो पाखण्डी निंद्यभेषियों की भक्तिसंयुक्त है, जो निंद्य मिथ्याधर्म पालता है, मिथ्यादृष्टियों की भक्ति करता है
और मिथ्या अज्ञानतप करता है, वह दुर्गति ही पाता है, इसलिए मिथ्यात्व छोड़ना, यह उपदेश है।।१४०॥
आगे इस ही अर्थ को दृढ़ करते हुए ऐसे कहते हैं कि ऐसे मिथ्यात्व से मोहित जीव संसार में भ्रमण करता है -
तीन शत त्रिषष्ठि पाखण्डी मतों को छोड़कर । जिनमार्ग में मन लगा इससे अधिक मुनिवर क्या कहें।।१४२।। अरे समकित रहित साधु सचल मुरदा जानियें। अपूज्य है ज्यों लोक में शव त्योंहि चलशव मानिये ।।१४३।।