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भावपाहुड कौन जाने? कई कहते हैं जीव अनित्य है - यह कौन जाने ? इत्यादि संशय-विपर्यय-अनध्यवसाय रूप होकर विवाद करते हैं। इनके संक्षेप से सड़सठ भेद हैं। कई विनयवादी हैं, उनमें से कई कहते हैं देवादिक के विनय से सिद्धि है, कई कहते हैं गुरु के विनय से सिद्धि है, कई कहते हैं कि माता के विनय से सिद्धि है, कई कहते हैं कि पिता के विनय से सिद्धि है, कई कहते हैं कि राजा के विनय से सिद्धि है, कई कहते हैं कि सबके विनय से सिद्धि है, इत्यादि विवाद करते हैं। इनके संक्षेप से बत्तीस भेद हैं।
इसप्रकार सर्वथा एकान्तवादियों के तीन सौ तरेसठ भेद संक्षेप से हैं, विस्तार करने पर बहुत हो जाते हैं, इनमें कई ईश्वरवादी हैं, कई कालवादी हैं, कई स्वभाववादी हैं, कई विनयवादी हैं, कई आत्मवादी हैं। इनका स्वरूप गोम्मटसारादि ग्रन्थों से जानना, ऐसे मिथ्यात्व के भेद हैं ।।१३७।।
आगे कहते हैं कि अभव्यजीव अपनी प्रकृति को नहीं छोड़ता है, उसका मिथ्यात्व नहीं मिटता है -
ण मुयइ पयडि अभव्वो सुठु वि आयण्णिऊण जिणधम्मं । गुडदुद्धं पि पिबंता ण पण्णया णिव्विसा होति ।।१३८।।
न मुंचति प्रकृतिमभव्य: सुष्ठु अपि आकर्ण्य जिनधर्मम् ।
गुडदुग्धमपि पिबंत: न पन्नगा: निर्विषाः भवंति ।।१३८।। अर्थ – अभव्य जीव भलेप्रकार जिनधर्म को सुनकर भी अपनी प्रकृति को नहीं छोड़ता है। यहाँ दृष्टान्त है कि सर्प गुड़सहित दूध को पीते रहने पर भी विषरहित नहीं होता है। ___ भावार्थ - जो कारण पाकर भी नहीं छूटता है उसे 'प्रकृति' या स्वभाव' कहते हैं। अभव्य का यह स्वभाव है कि जिसमें अनेकान्त तत्त्वस्वरूप है - ऐसा वीतरागविज्ञानस्वरूप जिनधर्म मिथ्यात्व को मिटानेवाला है, उसका भलेप्रकार स्वरूप सुनकर भी जिसका मिथ्यात्वस्वरूप भाव नहीं बदलता है, यह वस्तु का स्वरूप है, किसी का नहीं किया हुआ है। यहाँ उपदेश-अपेक्षा इसप्रकार जानना कि जो अभव्यरूप प्रकृति तो सर्वज्ञगम्य है, तो भी अभव्य की प्रकृति के समान अपनी प्रकृति न रखना, मिथ्यात्व को छोड़ना यह उपदेश है ।।१३८।।
तप तपें कुत्सित और कुत्सित साधु की भक्ति करें। कुत्सित गति को प्राप्त हों रे मूढ़ कुत्सितधर्मरत ।।१४०।। कुनय अर कुशास्त्र मोहित जीव मिथ्यावास में । घूमा अनादिकाल से हे धीर ! सोच विचार कर ।।१४१।।