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भावपाहुड के प्राणों का आहार किया, इसलिए अब जीवों का स्वरूप जानकर जीवों की दया पाल, भोगाभिलाष छोड़, यह उपदेश है ।।१३४।। फिर कहते हैं कि ऐसे प्राणियों की हिंसा से संसार में भ्रमण कर दुःख पाया -
पाणिवहेहि महाजस चउरासीलक्खजोणिमज्झम्मि। उप्पजंत मरंतो पत्तो सि णिरंतरं दुक्खं ।।१३५।।
प्राणिवधैः महायश: ! चतुरशीतिलक्षयोनिमध्ये ।
उत्पद्यमान: म्रियमाण: प्राप्तोऽसि निरंतरं दुःखम् ।।१३५।। अर्थ – हे मुने ! हे महायश ! तूने प्राणियों के घात से चौरासी लाख योनियों के मध्य में उत्पन्न होते हुए और मरते हुए निरंतर दु:ख पाया।
भावार्थ - जिनमत के उपदेश के बिना, जीवों की हिंसा से यह जीव चौरासी लाख योनियों में उत्पन्न होता है और मरता है। हिंसा से कर्मबंध होता है, कर्मबंध के उदय से उत्पत्तिमरणरूप संसार होता है। इसप्रकार जन्ममरण के दु:ख सहता है, इसलिए जीवों की दया का उपदेश है।।१३५।। आगे उस दया ही का उपदेश करते हैं -
जीवाणमभयदाणं देहि मुणी पाणिभूयसत्ताणं । कल्लाणसुहणिमित्तं परंपरा तिविहसुद्धीए ।।१३६।।
जीवानामभयदानं देहि मुने प्राणिभूतसत्त्वानाम् ।
कल्याणसुखनिमित्तं परंपरया त्रिविधशुद्धया ।।१३६।। अर्थ – हे मुने ! जीवों को और प्राणीभूत सत्त्वों को परम्परा से अपना कल्याण और सुख होने के लिए मन, वचन, काय की शुद्धता से अभयदान दे। __भावार्थ – 'जीव' पंचेन्द्रियों को कहते हैं, 'प्राणी' विकलत्रय को कहते हैं, 'भूत' वनस्पति को कहते हैं और ‘सत्त्व' पृथ्वी, अप, तेज, वायु को कहते हैं। इन सब जीवों को अपने समान जानकर अभयदान देने का उपदेश है। इससे शुभ प्रकृतियों का बंध होने से अभ्युदय का सुख होता है, परम्परा से तीर्थंकरपद पाकर मोक्ष पाता है, यह उपदेश है ।।१३६।।
आगे यह जीव षट् अनायतन के प्रसंग से मिथ्यात्व से संसार में भ्रमण करता है उसका स्वरूप कहते हैं। पहिले मिथ्यात्व के भेदों को कहते हैं -
असियसय किरियवाई अक्किरियाणंच होइ चुलसीदी।