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अष्टपाहुड
२१६ आगे अहिंसाधर्म के उपदेश का वर्णन करते हैं -
छज्जीव छडायदणं णिच्चं मणवयणकायजोएहिं। कुरु दय परिहर मुणिवर भावि अपुव्वं महासत्तं ।।१३३।।
षट्जीवान् षडायतनानां नित्यं मनोवचनकाययोगैः।
कुरु दयां परिहर मुनिवर भावय अपूर्वं महासत्त्वम् ।।१३३।। अर्थ – हे मुनिवर ! तू छहकाय के जीवों पर दया कर और छह अनायतनों को मन, वचन, काय के योगों से छोड़ तथा अपूर्व जो पहिले न हुआ ऐसा महासत्त्व अर्थात् सब जीवों में व्यापक (ज्ञायक) महासत्त्व चेतना भाव को भा।
भावार्थ - अनादिकाल से जीव का स्वरूप चेतनास्वरूप न जाना इसलिए जीवों की हिंसा की, अत: यह उपदेश है कि अब जीवात्मा का स्वरूप जानकर, छहकाय के जीवों पर दया कर । अनादि ही से आप्त, आगम, पदार्थ का और इनकी सेवा करनेवालों का स्वरूप जाना नहीं, इसलिए अनाप्त आदि छह अनायतन जो मोक्षमार्ग के स्थान नहीं हैं, उनको अच्छे समझकर सेवन किया, अत: यह उपदेश है कि अनायतन का परिहार कर । जीव के स्वरूप के उपदेशक - ये दोनों ही तूने पहिले जाने नहीं, न भावना की, इसलिए अब भावना कर, इसप्रकार उपदेश है ।।१३३।।
आगे कहते हैं कि जीव का तथा उपदेश करनेवालों का स्वरूप जाने बिना सब जीवों के प्राणों का आहार किया इसप्रकार दिखाते हैं -
दसविहपाणाहारो अणंतभवसायरे भमंतेण । भोयसुहकारणटुं कदो य तिविहेण सयलजीवाणं ।।१३४।। दशविधप्राणाहारः अनन्तभवसायरे भ्रमता।
भोगसुखकारणार्थं कृतश्च त्रिविधेन सकलजीवानां ।।१३४।। अर्थ – हे मुने ! तूने अनंतभवसागर में भ्रमण करते हुए, सकल त्रस, स्थावर जीवों के दश प्रकार के प्राणों का आहार, भोग सुख के कारण के लिए मन, वचन, काय से किया।
भावार्थ - अनादिकाल से जिनमत के उपदेश के बिना अज्ञानी होकर तूने त्रस-स्थावर जीवों
यदि भवभ्रमण से ऊबकर तू चाहता कल्याण है। तो मन वचन अर काय से सब प्राणियों को अभय दे।।१३६।। अक्रियावादी चुरासी बत्तीस विनयावादि हैं। सौ और अस्सी क्रियावादी सरसठ अरे अज्ञानि हैं ।।१३७ ।।