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अष्टपाहुड
के भाव की प्रवृत्ति के व्यवहार के भेद हैं, उनकी 'गुण' संज्ञा है, उनकी भावना रखना । यहाँ इतना और जानना कि गुणस्थान चौदह कहे हैं, उस परिपाटी से गुणदोषों का विचार है । मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र - इन तीनों में तो विभावपरिणति ही है, इनमें तो गुण का विचार ही नहीं है । अविरत, देशविरत आदि में शीलगुण का एकदेश आता है। अविरत में मिथ्यात्व अनन्तानुबंधी कषाय के अभावरूप गुण का एकदेश सम्यक्त्व और तीव्र रागद्वेष का अभावरूप गुण आता है और देशविरत में कुछ व्रत का एकदेश आता है । प्रमत्त में महाव्रतरूप सामायिक चारित्र का एकदेश आता है, क्योंकि पापसंबंधी रागद्वेष तो वहाँ नहीं है, परन्तु धर्मसंबंधी राग है और ‘सामायिक' रागद्वेष के अभाव का नाम है, इसीलिए सामायिक का एकदेश ही कहा 1
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यहाँ स्वरूप के सन्मुख होने में क्रियाकांड के संबंध से प्रमाद है, इसलिए 'प्रमत्त' नाम दिया है। अप्रमत्त में स्वरूप साधने में तो प्रमाद नहीं है, परन्तु कुछ स्वरूप के साधने का राग व्यक्त है, इसलिए यहाँ भी सामायिक का एकदेश ही कहा है। अपूर्वकरण - अनिवृत्तिकरण में राग व्यक्त नहीं है, अव्यक्तकषाय का सद्भाव है, इसलिए सामायिक चारित्र की पूर्णता कही । सूक्ष्मस में अव्यक्त कषाय भी सूक्ष्म रह गई, इसलिए इसका नाम 'सूक्ष्मसाम्पराय' रखा । उपशान्तमोह क्षीणमोह में कषाय का अभाव ही है, इसलिए जैसा आत्मा का मोहविकाररहित शुद्ध स्वरूप था उसका अनुभव हुआ, इसलिए 'यथाख्यात चारित्र' नाम रखा ।
ऐसे मोहकर्म के अभाव की अपेक्षा तो यहाँ उत्तरगुणों की पूर्णता कही जाती है, परन्तु आत्मा का स्वरूप अनन्तज्ञानादि स्वरूप है सो घाकिर्म के नाश होने पर अनन्तज्ञानादि प्रगट होते हैं, तब ‘सयोगकेवली' कहते हैं। इसमें भी कुछ योगों की प्रवृत्ति है, इसलिए 'अयोगकेवली' चौदहवाँ गुणस्थान है। इसमें योगों की प्रवृत्ति मिट कर आत्मा अवस्थित हो जाती है, तब चौरासी लाख उत्तरगुणों की पूर्णता कही जाती है । ऐसे गुणस्थानों की अपेक्षा उत्तरगुणों की प्रवृत्ति विचारने योग्य है। ये बाह्य अपेक्षा भेद हैं, अंतरंग अपेक्षा विचार करें तो संख्यात, असंख्यात, अनन्त भेद होते हैं, इसप्रकार जानना चाहिए ।। १२० ।।
आगे भेदों के विकल्प से रहित होकर ध्यान करने का उपदेश करते हैं
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झायहि धम्मं सुक्कं अट्ट रउद्दं च झाण मुत्तूण ।
इन्द्रिय-सुखाकुल द्रव्यलिंगी कर्मतरु नहिं काटते । पर भावलिंगी भवतरु को ध्यान करवत काटते ।। १२२ ।।