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भावपाहुड
२०७ इनको कृत, कारित, अनुमोदना से गुणा करने पर सत्ताईस होते हैं। इनको पाँच इन्द्रियों से गुणा करने पर एक सौ पैंतीस होते हैं। इनको द्रव्य और भाव - इन दो से गुणा करने पर दो सौ सत्तर होते हैं। इनको चार संज्ञा से गुणा करने पर एक हजार अस्सी होते हैं। इनको अनन्तानुबंधी अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन क्रोध मान माया लोभ इन सोलह कषायों से गुणा करने पर सत्रह हजार दो सौ अस्सी होते हैं। ऐसे अचेतन स्त्री के सात सौ बीस मिलाने पर *अठारह हजार होते हैं। ऐसे स्त्री के संसर्ग से विकार परिणाम होते हैं सो कुशील है, इनके अभावरूप परिणाम शील है इसकी ‘ब्रह्मचर्य' संज्ञा है।
चौरासी लाख उत्तरगुण ऐसे हैं जो आत्मा के विभावपरिणामों के बाह्यकारणों की अपेक्षा भेद होते हैं। उनके अभावरूप ये गुणों के भेद हैं। उन विभावों के भेदों की गणना संक्षेप से ऐसे है - १. हिंसा, २. अनृत, ३. स्तेय, ४. मैथुन, ५. परिग्रह, ६. क्रोध, ७. मान, ८. माया, ९. लोभ, १०. भय, ११. जुगुप्सा, १२. अरति, १३. शोक, १४. मनोदृष्टत्व, १५. वचनदृष्टत्व, १६. कायदृष्टत्व, १७. मिथ्यात्व, १८. प्रमाद, १९. पैशून्य, २०. अज्ञान, २१. इन्द्रिय का अनुग्रह ऐसे इक्कीस दोष हैं। इनको अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार इन चारों से गुणा करने पर चौरासी होते हैं। पृथ्वी-अप-तेज-वायु-प्रत्येक-साधारण ये स्थावर एकेन्द्रिय जीव छह और विकल तीन, पंचेन्द्रिय एक - ऐसे जीवों के दस भेद, इनका परस्पर आरंभ से घात होता है इनको परस्पर गुणा करने पर सौ (१००) होते हैं। इनसे चौरासी को गुणा करने पर चौरासी सौ होते हैं, इनको दस ‘शील-विराधने' से गुणा करने पर चौरासी हजार होते हैं। इन दस के नाम ये हैं - १. स्त्री संसर्ग, २. पुष्टरसभोजन, ३. गंधमाल्य का ग्रहण, ४. सुन्दर शयनासन का ग्रहण, ५. भूषण का मंडन, ६. गीतवादित्र का प्रसंग, ७. धन का संप्रयोजन, ८. कुशील का संसर्ग, ९. राजसेवा, १०. रात्रिसंचरण ये दस 'शील-विराधना' हैं। इनके आलोचना के दस दोष हैं, गुरुओं के पास लगे हए दोषों की आलोचना करे सो सरल होकर न करे कुछ शल्य रखे, उसके दस भेद किये हैं, इनसे गुणा करने पर आठ लाख चालीस हजार होते हैं। आलोचना को आदि देकर प्रायश्चित्त के दस भेद हैं, इनसे गुणा करने पर चौरासी लाख होते हैं। सो सब दोषों के भेद हैं, इनके अभाव से गुण होते हैं। इनकी भावना रखे, चिन्तन और अभ्यास रखे, इनकी संपूर्ण प्राप्ति होने का उपाय रखे, इसप्रकार इनकी भावना का उपदेश है।
आचार्य कहते हैं कि बारबार बहुत वचन के प्रलाप से तो कुछ साध्य नहीं है, जो कुछ आत्मा
रौद्रात वश चिरकाल से दुःख सहे अगणित आजतक। अब तज इन्हें ध्या धरमसुखमय शुक्ल भव के अन्ततक॥१२१।।