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में 'तात्पर्यवृत्ति' नामक टीका लिखी, जो वैराग्यभाव एवं शान्तरस से सराबोर है, भिन्न प्रकार की अद्भुत टीका है। ___ अष्टपाहुड़ के आरंभिक छह पाहुड़ों पर विक्रम की सोलहवीं सदी में लिखी गई भट्टारक श्रुतसागर सूरि की संस्कृत टीका प्राप्त होती है, जो षट्पाहुड़ नाम से प्रकाशित हुई । षट्पाहुड़ कोई स्वतंत्र कृति नहीं है, अपितु अष्टपाहुड़ के आरंभिक छह पाहुड़ ही षट्पाहुड़ नाम से जाने जाते हैं।
यहाँ इन सब पर विस्तृत चर्चा करना न तो संभव है और न आवश्यक ही। यहाँ तो अब प्रस्तुत कृति अष्टपाहुड के प्रतिपाद्य पर दृष्टिपात करना प्रसंग प्राप्त है। अष्टपाहुड __ पाँच सौ तीन गाथाओं में निबद्ध एवं आठ पाहुडों में विभक्त यह अष्टपाहुड ग्रंथ मूलसंघ के पट्टाचार्य कठोर प्रशासक आचार्य कुन्दकुन्द की एक ऐसी अमर कृति है, जो दो हजार वर्षों से लगातार शिथिलाचार के विरुद्ध सशक्त आवाज उठाती चली आ रही है और इसकी उपयोगिता पंचम काल के अन्त तक बनी रहेगी; क्योंकि यह अवसर्पिणी काल है, इसमें शिथिलाचार तो उत्तरोत्तर बढ़ना ही है। अत: इसकी उपयोगिता भी निरन्तर बढती ही जानी है।
आज समृद्धि और सुविधाओं के मोह से आच्छन्न शिथिलाचारी श्रावकों एवं समन्वय के नाम पर सब जगह झुकनेवाले नेताओं द्वारा अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए साधुवर्ग में व्याप्त अपरिमित शिथिलाचार को भरपूर संरक्षण दिया जा रहा है, पाल-पोष कर पुष्ट किया जा रहा है; अत: आज के संदर्भ में इसकी उपयोगिता असंदिग्ध है।
इतिहास साक्षी है कि दिगम्बर जैन समाज में वृद्धिंगत शिथिलाचार के विरुद्ध जब-जब भी आवाज बुलन्द हुई है, तब-तब आचार्य कुन्दकुन्द की इस अमर कृति को याद किया जाता रहा है, इसके उद्धरण देकर शिथिलाचार के विरुद्ध समाज को सावधान किया जाता रहा है। इस ग्रंथ के उद्धरणों का समाज पर अपेक्षित प्रभाव भी पड़ता है, परिणामस्वरूप समाज में शिथिलाचार के विरुद्ध एक वातावरण बनता है। यद्यपि विगत दो हजार वर्षों में उत्तरोत्तर सीमातीत शिथिलाचार बढ़ा है; तथापि आज जो कुछ भी मर्यादा दिखाई देती है, उसमें अष्टपाहुड का सर्वाधिक योगदान है। ___ अष्टपाहुड एक ऐसा अंकुश है, जो शिथिलाचार के मदोन्मत्त गजराज को बहुत कुछ काबू में रखता है, सर्वविनाश नहीं करने देता । यदि अष्टपाहुड नहीं होता तो आज हम कहाँ पहुँच गये होते - इसकी कल्पना करना भी कष्टकर प्रतीत होता है।
अत: यह कहने में रंचमात्र भी संकोच नहीं करना चाहिए कि अष्टपाहुड की उपयोगिता निरन्तर रही है और पंचम काल के अन्त तक बनी रहेगी। वीतरागी जिनधर्म की निर्मल धारा के अविरल प्रवाह के अभिलाषी आत्मार्थी जनों को स्वयं तो
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