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किये, अपितु उक्त परमागमों के सस्ते सुलभ मनोज्ञ प्रकाशन भी कराये; तथा सोनगढ़ (जिला - भावनगर, गुजरात) में श्री महावीर कुन्दकुन्द परमागम मन्दिर का निर्माण कराके, उसमें संगमरमर के पाटियों पर समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय और नियमसार संस्कृत टीका सहित तथा अष्टपाहुड़ उत्कीर्ण कराकर उन्हें भौतिक दृष्टि से अमर कर दिया है। उक्त परमागम मन्दिर आज एक दर्शनीय तीर्थ बन गया है।
पवित्रता और पुण्य के अद्भुत संगम इस महापुरुष (कानजी स्वामी) के मात्र प्रवचन ही नहीं, अपितु व्यवस्थित जीवन भी अध्ययन की वस्तु है; उसका अध्ययन किया जाना स्वतंत्ररूप से अपेक्षित है, तत्संबंधी विस्तान न तो यहाँ संभव ही है और न उचित ही।
आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा रचित उपलब्ध साहित्य इसप्रकार है - १.समयसार (समयपाहुड)
२. प्रवचनसार (पवयणसार) ३. नियमसार (णियमसार)
४. पंचास्तिकायसंग्रह (पंचत्थिकायसंगहो) ५. अष्टपाहुड़ (अट्ठपाहुड)
इनके अतिरिक्त द्वादशानुप्रेक्षा (बारस अणुवेक्खा) एवं दशभक्ति भी आपकी कृतियाँ मानी जाती हैं। इसीप्रकार रयणसार और मूलाचार को भी आपकी रचनायें कहा जाता है। कुछ लोग तो कुरल काव्य को भी आपकी कृति मानते हैं ।१३ उल्लेखों के आधार पर कहा जाता है कि आपने षट्खण्डागम के प्रथम तीन खण्डों पर ‘परिकर्म' नामक टीका लिखी थी, किन्तु वह आज उपलब्ध नहीं।
अष्टपाहुड़ में निम्नलिखित आठ पाहड़ संगृहीत हैं - १. दसणपाहुड २. सुत्तपाहुड ३. चारित्तपाहुड ४. बोधपाहुड ५. भावपाहुड ६. मोक्खपाहुड ७. लिंगपाहुड ८.सीलपाहुड
समयसार जिन-अध्यात्म का प्रतिष्ठापक अद्वितीय महान शास्त्र है। प्रवचनसार और पंचास्तिकायसंग्रह भी जैनदर्शन में प्रतिपादित वस्तुव्यवस्था के विशद् विवेचन करनेवाले जिनागम के मूल ग्रन्थराज हैं।
ये तीनों ग्रन्थराज परवर्ती दिगम्बर जैन साहित्य के मूलाधार रहे हैं। उक्त तीनों को नाटकत्रयी, प्राभृतत्रयी और कुन्दकुन्दत्रयी भी कहा जाता है।
उक्त तीनों ग्रन्थराजों पर आचार्य कुन्दकुन्द के लगभग एक हजार वर्ष बाद एवं आज से एक हजार वर्ष पहले आचार्य अमतचन्द्रदेव ने संस्कत भाषा में गम्भीर टीकायें लिखी हैं। समयसार, प्रवचनसार एवं पंचास्तिकाय पर आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा लिखी गई टीकाओं के सार्थक नाम क्रमश: 'आत्मख्याति', 'तत्त्वप्रदीपिका' एवं 'समयव्याख्या' हैं।
आचार्य अमृतचन्द्र से लगभग तीन सौ वर्ष बाद हए आचार्य जयसेन द्वारा इन तीनों ग्रन्थों पर लिखी गई तात्पर्यवृत्ति' नामक सरल-सुबोध संस्कृत टीकायें भी उपलब्ध हैं।
नियमसार पर परमवैरागी मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव ने विक्रम की बारहवीं सदी में संस्कृत भाषा १३. रयणसार प्रस्तावना