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अष्टपाहुड __ अर्थ - पूर्वोक्त प्रकार भाव शुद्ध करने पर ज्ञानरूप जल को पीकर सिद्ध होते हैं। कैसे हैं सिद्ध । निर्मथ्य अर्थात् मथा न जावे ऐसे तृषा दाह शोष से रहित हैं, इसप्रकार सिद्ध होते हैं, ज्ञानरूप जल पीने का यह फल है। सिद्धशिवालय अर्थात् मुक्तिरूप महल में रहनेवाले हैं, लोक के शिखर पर जिनका वास है। इसीलिए कैसे हैं ? तीन भुवन के चूड़ामणि हैं, मुकुटमणि हैं तथा तीन भुवन में ऐसा सुख नहीं है, ऐसे परमानन्द अविनाशी सुख को वे भोगते हैं। इसप्रकार वे तीन भुवन के मुकुटमणि हैं।
भावार्थ - शुद्ध भाव करके ज्ञानरूप जल पीने पर तृष्णा दाह शोष मिट जाता है, इसलिए ऐसे कहा है कि परमानन्दरूप सिद्ध होते हैं।।९३।। आगे भावशुद्धि के लिए फिर उपदेश करते हैं - दस दस दो सुपरीसह सहहि मुणी सयलकाल
। ए ण सुत्तेण अप्पमत्तो संजमघादं पमोत्तूण ।।९४।। दश दश द्वौसुपरीषहान्सहस्व मुने! सकलकालंकायेन।
सूत्रेण अप्रमत्तः संयमघातं प्रमुच्य ।।१४।। अर्थ – हे मुने ! तू दस-दस-दो अर्थात् बाईस जो सुपरीषह अर्थात् अतिशय कर सहने योग्य को सूत्रेण अर्थात् जैसे जिनवचन में कहे हैं, उसी रीति से नि:प्रमादी होकर संयम का घात दूर कर और तेरे काय से सदा काल निरंतर सहन कर।
भावार्थ - जैसे संयम न बिगड़े और प्रमाद का निवारण हो वैसे निरन्तर मुनि क्षुधा, तृषा आदिक बाईस परीषह सहन करे । इनको सहन करने का प्रयोजन सूत्र में ऐसा कहा है कि इनके सहन करने से कर्म की निर्जरा होती है और संयम के मार्ग से छूटना नहीं होता है, परिणाम दृढ़ होते हैं।।९४।।
१. 'मुदएण' पाठान्तर 'मुदकेण'।
जल में रहे चिरकाल पर पत्थर कभी भिदता नहीं। त्यों परीषह उपसर्ग से साध कभी भिदता नहीं।।९५।। भावना द्वादश तथा पच्चीस व्रत की भावना । भावना बिन मात्र कोरे वेष से क्या लाभ है।।१६।।