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भावपाहुड आगे फिर उपदेश कहते हैं -
णवणोकसायवग्गं मिच्छत्तं चयसु भावसुद्धीए। चेइयपवयणगुरुणं करेहि भत्तिं जिणाणाए ।।९१।। नवनोकषायवर्गं मिथ्यात्वं त्यज भावशुद्धया।
चैत्यप्रवचनगुरूणां कुरु भक्तिं जिनाज्ञया ।।९१।। अर्थ – हे मुने ! तू नव जो हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद ये नो कषायवर्ग तथा मिथ्यात्व इनको भावशुद्धि द्वारा छोड़ और जिन-आज्ञा से चैत्य, प्रवचन, गुरु इनकी भक्ति कर ।।९१।। आगे फिर कहते हैं -
तित्थयरभासियत्थं गणहरदेवेहिं गंथियं सम्मं । भावहि अणुदिणु अतुलं विसुद्धभावेण सुयणाणं ।।१२।।
तीर्थंकरभाषितार्थं गणधरदेवै: ग्रथितं सम्यक् ।
भावय अनुदिनं अतुलं विशुद्धभावेन श्रुतज्ञानम् ।।९२।। अर्थ – हे मुने ! तू जिस श्रुतज्ञान को तीर्थंकर भगवान् ने कहा और गणधर देवों ने गूंथा अर्थात् शास्त्ररूप रचना की, उसको सम्यक् प्रकार भाव शुद्ध कर निरन्तर भावना कर । कैसा है वह श्रुतज्ञान? अतुल है; इसके बराबर अन्य मत का कहा हुआ श्रुतज्ञान नहीं है ।।९२।। ऐसा करने से क्या होता है ? सो कहते हैं -
'पीऊण णाणसलिलं णिम्महतिसडाहसोसउम्मुक्का। होंति सिवालयवासी तिहुवणचूडामणी सिद्धा ।।९३।।
पीत्वा ज्ञानसलिलं निर्मथ्यतृषादाहशोषोन्मुक्ता। भवंति शिवालयवासिन: त्रिभुवनचूडामणयः सिद्धाः ।।१३।।
१. पाठान्तर: – पाउण, २. पाठान्तरः - प्राप्य
श्रुतज्ञानजल के पान से ही शान्त हो भवदुखतृषा । त्रैलोक्यचडामणी शिवपद प्राप्त हो आनन्दमय ।।१३।। जिनवरकथित बाईस परीषह सहो नित समचित्त हो । बचो संयमघात से हे मुनि ! नित अप्रमत्त हो ।।९४।।