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भावपाहुड
१७३ रहित है।
भावार्थ – 'जिनभावना' जो सम्यग्दर्शन-भावना उससे रहित जो जीव है, वह नग्न भी रहे तो बोधि जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रस्वरूप मोक्षमार्ग को नहीं पाता है। इसीलिए संसारसमुद्र में भ्रमण करता हुआ संसार में ही दुःख को पाता है तथा वर्तमान में भी जो पुरुष नग्न होता है वह दुःख ही को पाता है। सुख तो भाव नग्न हो वे मुनि ही पाते हैं।।६८।।
आगे इसी अर्थ को दृढ़ करने के लिए कहते हैं जो द्रव्यनग्न होकर मुनि कहलावे उसका अपयश होता है -
अयसाण भायणेय य किं ते णग्गेण पावमलिणेण । पेसुण्णहासमच्छरमायाबहुलेण सवणेण ।।६९।।
अयशसां भाजनेन न किं ते नग्नेन पापमलितेन ।
पैशून्यहासमत्सरमायाबहुलेन श्रमणेन ।।६९।। अर्थ - हे मुने ! तेरे ऐसे नग्नपने तथा मुनिपने से क्या साध्य है ? कैसा है - पैशून्य अर्थात् दूसरे का दोष कहने का स्वभाव, हास्य अर्थात् दूसरे की हँसी करना, मत्सर अर्थात् अपने बराबरवाले से ईर्ष्या रखकर दूसरे को नीचा करने की बुद्धि, माया अर्थात् कुटिल परिणाम, ये भाव उसमें प्रचुरता से पाये जाते हैं, इसीलिए पाप से मलिन है और अयश अर्थात् अपकीर्ति का भाजन है।
भावार्थ - पैशून्य आदि पापों से मलिन इसप्रकार नग्नस्वरूप मुनिपने से क्या साध्य है ? उलटा अपकीर्तन का भाजन होकर व्यवहार धर्म की हँसी करानेवाला होता है, इसलिए भावलिंगी होना योग्य है - यह उपदेश है।।६९।। आगे इसप्रकार भावलिंगी होने का उपदेश करते हैं -
पयडहिं जिणवरलिंगं अभितरभावदोसपरिसुद्धो । भावमलेण य जीवो बाहिरसंगम्मि मयलियइ ।।७०।।
मान मत्सर हास्य ईर्ष्या पापमय परिणाम हों। तो हे श्रमण तननगन होने से तुझे क्या साध्य है।।६९।। हे आत्मन् जिनलिंगधर तू भावशुद्धी पूर्वक। भावशुद्धि के बिना जिनलिंग भी हो निरर्थक ।।७।।