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अष्टपाहुड
___ भावार्थ - मोक्षमार्ग में एकदेश, सर्वदेश व्रतों की प्रवृत्तिरूप मुनि-श्रावकपना है, उन दोनों का कारणभूत निश्चय सम्यग्दर्शनादिक भाव हैं। भाव बिना व्रतक्रिया की कथनी कुछ कार्यकारी नहीं है, इसलिए ऐसा उपदेश है कि भाव बिना पढ़ने-सुनने आदि से क्या होता है ? केवल खेदमात्र है, इसलिए भावसहित जो करो वह सफल है। यहाँ ऐसा आशय है कि कोई जाने कि पढ़ना-सुनना ही ज्ञान है तो इसप्रकार नहीं है, पढ़कर सुनकर आपको ज्ञानस्वरूप जानकर अनुभव करे तब भाव जाना जाता है, इसलिए बारबार भावना से भाव लगाने पर ही सिद्धि है ।।६६ ।। आगे कहते हैं कि यदि बाह्य नग्नपने से ही सिद्धि हो तो नग्न तो सब ही होते हैं -
दव्वेण सयल णग्गा णारयतिरिया य सयलसंघाया। परिणामेण असुद्धा ण भावसवणत्तणं पत्ता ।।६७।। द्रव्येण सकला नग्ना: नारकतिर्यंच सकलसंघाताः।
परिणामेन अशुद्धः न भावश्रमणत्वं प्राप्ताः ।।६७।। अर्थ - द्रव्य से बाह्य में तो सब प्राणी नग्न होते हैं। नारकी जीव और तिर्यंच जीव तो निरन्तर वस्त्रादि से रहित नग्न ही रहते हैं। ‘सकलसंघात' कहने से अन्य मनुष्य आदि भी कारण पाकर नग्न होते हैं तो भी परिणामों से अशुद्ध हैं, इसलिए भावभ्रमणपने को प्राप्त नहीं हुए।
भावार्थ - यदि नग्न रहने से ही मुनिलिंग हो तो नारकी तिर्यंच आदि सब जीवसमूह नग्न रहते हैं, वे सब ही मुनि ठहरे इसलिए मुनिपना तो भाव शुद्ध होने पर ही होता है। अशुद्ध भाव होने पर द्रव्य से नग्न भी हो तो भावमुनिपना नहीं पाता है।।६७।।। आगे इसी अर्थ को दृढ़ करने के लिए केवल नग्नपने की निष्फलता दिखाते हैं -
णग्गो पावइ दुक्खं णग्गो संसारसायरे भमइ। णग्गो ण लहइ बोहिं जिणभावणवजिओ सुइरं ।।६८।। नग्नः प्राप्नोति दुःखं नग्नः संसारसागरे भ्रमति।।
नग्नः न लभते बोधिं जिनभावनावर्जित: सुचिरं ।।६८।। अर्थ - नग्न सदा दुःख पाता है, नग्न सदा संसार समुद्र में भ्रमण करता है और नग्न बोधि अर्थात् सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप स्वानुभव को नहीं पाता है, कैसा है वह नग्न जो जिनभावना से
हों नग्न पर दुख सहें अर संसारसागर में रुलें। जिन भावना बिन नग्नतन भी बोधि को पाते नहीं।।६८।।