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अष्टपाहुड पर्याय अनित्य है, इस जीव के कर्म के निमित्त से मनुष्य, तिर्यंच, देव और नारक पर्याय होती है, इसका कदाचित् अभाव देखकर जीव का सर्वथा अभाव मानते हैं। उनको सम्बोधन करने के लिए ऐसा कहा है कि जीव का द्रव्यदृष्टि से नित्य स्वभाव है। पर्याय का अभाव होने पर सर्वथा अभाव नहीं मानता है, वह देह से भिन्न होकर सिद्ध परमात्मा होता है, वे सिद्ध वचनगोचर नहीं हैं। जो देह को नष्ट होते देखकर जीव का सर्वथा नाश मानते हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं, वे सिद्धपरमात्मा कैसे हो सकते हैं ? अर्थात् नहीं होते हैं ।।६३।।
आगे कहते हैं कि जो जीव का स्वरूप वचन के अगोचर है और अनुभवगम्य है, वह इसप्रकार है -
अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसदं । जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिहिट्ठसंठाणं ।।६४।।
अरसमरूपमगंधं अव्यक्तं चेतनागुणं अशब्दम् ।
जानीहि अलिंगग्रहणं जीवं अनिर्दिष्टसंस्थानम् ।।६४।। अर्थ - हे भव्य ! तू जीव का स्वरूप इसप्रकार जान कैसा है ? अरस अर्थात् पाँच प्रकार के खट्टे, मीठे, कडुवे, कषायले और खारे रस से रहित है। काला, पीला, लाल, सफेद और हरा इसप्रकार अरूप अर्थात् पाँच प्रकार के रूप से रहित है। दो प्रकार की गंध से रहित है। अव्यक्त अर्थात् इन्द्रियों के गोचर व्यक्त नहीं है। चेतना गुणवाला है, अशब्द अर्थात् शब्दरहित है। अलिंगग्रहण अर्थात् जिसका कोई चिह्न इन्द्रिय द्वारा ग्रहण में नहीं आता है। अनिर्दिष्ट संस्थान अर्थात् चोकोर-गोल आदि कुछ आकार उसका कहा नहीं जाता है, इसप्रकार जीव जानो।
भावार्थ - रस, रूप, गंध, शब्द ये तो पुद्गल के गुण हैं, इनका निषेधरूप जीव कहा, अव्यक्त अलिंगग्रहण अनिर्दिष्टसंस्थान कहा, इसप्रकार ये भी पुद्गल के स्वभाव की अपेक्षा से निषेधरूप ही जीव कहा और चेतना गुण कहा तो यह जीव का विधिरूप कहा । निषेध अपेक्षा तो वचन के अगोचर जानना और विधि अपेक्षा स्वसंवेदन गोचर जानना । इसप्रकार जीव का स्वरूप जानकर अनुभवमोचर करना। यह गाथा समयसार में ४९, प्रवचनसार में १७२, नियमसार में ४६, १. 'भायण' पाठान्तर 'भायणो'
चैतन्य गुणमय आतमा अव्यक्त अरस अरूप है। जानो अलिंगग्रहण इसे यह अनिर्दिष्ट अशब्द है।।६४।। अज्ञान नाशक पंचविध जो ज्ञान उसकी भावना। भा भाव से हे आत्मन् ! तो स्वर्ग-शिवसुख प्राप्त हो ।।६५।।