________________
भावपाहुड
१६९ को जानकर भावे, वह जरा-मरण का विनाश कर प्रगट निर्वाण को प्राप्त करता है।
भावार्थ – 'जीव' ऐसा नाम तो लोक में प्रसिद्ध है, परन्तु इसका स्वभाव कैसा है ? इसप्रकार लोगों को यथार्थ ज्ञान नहीं है और मतान्तर के दोष से इसका स्वरूप विपर्यय हो रहा है। इसलिए इसका यथार्थ स्वरूप जानकर भावना करते हैं। वे संसार से निवृत्त होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं ।।६१।। आगे जीव का स्वरूप सर्वज्ञदेव ने कहा है, वह कहते हैं -
जीवो जिणपण्णत्तोणाणसहावो य चेयणासहिओ। सो जीवो णायव्वो कम्मक्खयकरणणिम्मित्तो ।।६।।
जीव: जिनप्रज्ञप्त: ज्ञानस्वभाव: च चेतनासहितः।
सः जीवः ज्ञातव्यः कर्मक्षयकरणनिमित्तः ।।१२।। अर्थ – जिन सर्वज्ञदेव ने जीव का स्वरूप इसप्रकार कहा है - जीव है वह चेतनासहित है और ज्ञानस्वभाव है, इसप्रकार जीव की भावना करना, जो कर्म के क्षय के निमित्त जानना चाहिए।
भावार्थ - जीव का चेतनासहित विशेषण करने से तो चार्वाक जीव को चेतनासहित नहीं मानता है, उसका निराकरण है। ज्ञानस्वभाव विशेषण से सांख्यमती ज्ञान को प्रधान का धर्म मानता है, जीव को उदासीन नित्य चेतनारूप मानता है, उसका निराकरण है और नैयायिकमती गुण-गुणी का भेद मानकर ज्ञान को सदा भिन्न मानता है, उसका निराकरण है। ऐसे जीव के स्वरूप को भाना कर्म के क्षय के निमित्त होता है, अन्य प्रकार मिथ्याभाव है ।।६२।। आगे कहते हैं कि जो पुरुष जीव का अस्तित्व मानते हैं, वे *सिद्ध होते हैं -
जेसिं जीवसहावो णत्थि अभावो य सव्वहा तत्थ । ते होंति भिण्णदेहा सिद्धा वचिगोयरमदीदा ।।६३।।
येषां जीवस्वभाव: नास्ति अभाव: च सर्वथा तत्र ।
ते भवन्ति भिन्नदेहा: सिद्धाः वचोगोचरातीताः ।।६३।। अर्थ – जिन भव्यजीवों के जीवनामक पदार्थ सद्भावरूप है और सर्वथा अभावरूप नहीं है, वे भव्यजीव देह से भिन्न तथा वचनगोचरातीत सिद्ध होते हैं। *मिभावार्थमाजीत इन्सपर्यायस्वरूप है, कथंचित् अस्तिस्वरूप है, कथंचित् नास्तिस्वरूप है।
जो जीव के सद्भाव को स्वीकारते वे जीव ही। निर्देह निर्वच और निर्मल सिद्धपद को पावते ।।३।।