________________
१६४
आगे शास्त्र पढ़े बिना शिवभूति मुनि ने तुषमाष मोक्ष प्राप्त किया। उसका उदाहरण कहते हैं
अष्टपाहुड
घोखते ही भाव की विशुद्धि को पाकर
तुसमासं घोसंतो भावविसुद्धो महाणुभावो य । णामेण य सिवई केवलणाणी फुडं जाओ ।। ५३ ।।
तुषमाषं घोषयन् भावविशुद्ध: महानुभावश्च ।
नाम्ना च शिवभूति: केवलज्ञानी स्फुटं जात: ।। ५३ ।।
अर्थ – आचार्य कहते हैं कि शिवभूति मुनि ने शास्त्र नहीं पढ़े थे, परन्तु तुषमाष ऐसे शब्द को रटते हुए भावों की विशुद्धता से महानुभाव होकर केवलज्ञान पाया, यह प्रकट है।
भावार्थ – कोई जानेगा कि शास्त्र पढ़ने से ही सिद्धि है तो इसप्रकार भी नहीं है । विभूति मुनि ने तुषमाष ऐसा शब्दमात्र रटने से ही भावों की विशुद्धता से केवलज्ञान पाया । इसकी कथा इसप्रकार है - कोई शिवभूति नामक मुनि था । उसने गुरु के पास शास्त्र पढ़े, परन्तु धारणा नहीं हुई। तब गुरु ने यह शब्द पढ़ाया कि 'मा रुष मा तुष' सो इस शब्द को घोखने लगा । इसका अर्थ यह है कि रोष मत करो और तोष मत करे अर्थात् राग-द्वेष मत करो, इससे सर्वसिद्धि है।
फिर यह भी शुद्ध याद न रहा तब 'तुषमास' ऐसा पाठ घोखने लगा, दोनों पदों के 'रुकार और' तुकार’ भूल गये और 'तुष माष' इसप्रकार याद रह गया । उसको घोखते हुए विचरने लगे । तब कोई एक स्त्री उड़द की दाल धो रही थी उसको किसी ने पूछा, तू क्या कर रही है ? उसने कहा – तुष और माष भिन्न-भिन्न कर रही हूँ । तब यह सुनकर मुनि ने 'तुष माष' शब्द का भावार्थ यह जाना कि यह शरीर तो तुष है और यह आत्मा माष है, दोनों भिन्न-भिन्न हैं । इसप्रकार भाव जानकर आत्मा का अनुभव करने लगा । चिन्मात्र शुद्ध आत्मा को जानकर उसमें लीन हुआ, तब घाति कर्म का नाशकर केवलज्ञान प्राप्त किया । इसप्रकार भावों की विशुद्धता से सिद्धि हुई यह जानकर भाव शुद्ध करना, यह उपदेश है ।। ५३ ।।
आगे इसी अर्थ को सामान्यरूप से कहते हैं -
भावेण होइ णग्गो बाहिरलिंगेण किं च णग्गेण ।
१. माकार, ऐसा पाठ सुसंगत है।
भाव से हो नग्न तन से नग्नता किस काम की। भाव एवं द्रव्य से हो नाश कर्मकलंक का ।।५४।।