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भावपाहुड
१६३ ब्रह्मचर्य पालते हुए बारह वर्ष तक तप कर अन्त में संन्यास मरण करके ब्रह्मकल्प में विद्युन्माली देव हुआ। वहाँ से चयकर जम्बूकुमार हुआ सो दीक्षा ले केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष गया । इसप्रकार शिवकुमार भावमुनि ने मोक्ष प्राप्त किया। इसकी विस्तार सहित कथा जम्बूचरित्र में है, वहाँ से जानिये । इसप्रकार भावलिंग प्रधान है ।।५१।।
आगे शास्त्र भी पढ़े और सम्यग्दर्शनादिरूप भाव विशुद्ध न हो तो सिद्धि को प्राप्त नहीं कर सकता, उसका उदाहरण अभव्यसेन का कहते हैं -
केवलिजिणपण्णत्तं एयादसअंग सयलसुयणाणं । पढिओ अभव्वसेणो ण भावसवणत्तणं पत्तो ।।५२।। केवलिजिनप्रज्ञप्तं एकादशांगं सकलश्रुतज्ञानम् ।
पठितः अभव्यसेन: न भावश्रमणत्वं प्राप्तः ।।५२।। अर्थ – अभव्यसेन नाम के द्रव्यलिंगी मुनि ने केवली भगवान से उपदिष्ट ग्यारह अंग पढ़े और ग्यारह अंग को पूर्ण श्रुतज्ञान' भी कहते हैं, क्योंकि इतने पढ़े हुए को अर्थ अपेक्षा पूर्ण श्रुतज्ञान' भी हो जाता है। अभव्यसेन इतना पढ़ा तो भी भावश्रमणपने को प्राप्त न हुआ।
भावार्थ - यहाँ ऐसा आशय है कि कोई जानेगा बाह्यक्रिया मात्र से तो सिद्धि नहीं है और शास्त्र के पढ़ने से सिद्धि है तो इसप्रकार जानना भी सत्य नहीं है, क्योंकि शास्त्र पढ़ने मात्र से भी सिद्धि नहीं है, अभव्यसेन द्रव्यमुनि भी हुआ और ग्यारह अंग भी पढ़े तो भी जिनवचन की प्रतीति न हुई, इसलिए भावलिंग नहीं पाया। अभव्यसेन की कथा पुराणों में प्रसिद्ध है, वहाँ से जानिये ।।५२।।
१. मुद्रित संस्कृत सटीक प्रति में यह गाथा इसप्रकार है -
अंगाई दस य दुण्णि च चउदसपुव्वाई सयलसुयणाणं । पढिओ अभव्वसेणो ण भावसवणत्तणं पत्तो ।।५२ ।। अंगानि दश च द्वे च चतुर्दशपूर्वाणि सकलश्रुतज्ञानम् ।
पठितश्च अभव्यसेन: न भावश्रमणत्वं प्राप्तः ।।५२।। अभविसेन ने केवलि प्ररूपित अंग ग्यारह भी पढ़े। पर भावलिंग बिना अरे संसारसागर न तिरे ।।५२।। कहाँ तक बतावें अरे महिमा तुम्हें भावविशुद्धि की। तुषमास पद को घोखते शिवभूति केवलि हो गये ।।५३।।