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भावपाहुड
मंत्री था। वहाँ अभिनन्दन आदि पाँच सौ मुनि आये, उनमें एक खंडक नाम के मुनि थे । उन्होंने बालक नाम के मंत्री को वाद में जीत लिया, तब मंत्री ने क्रोध करके एक भाँडको मुनि का रूप कराकर राजा की रानी सुव्रता के साथ क्रीडा करते हुए राजा को दिखा दिया और कहा कि देखो ! राजा के ऐसी भक्ति है जो अपनी स्त्री भी दिगम्बर को क्रीडा करने के लिए दे दी है। तब राजा ने दिगम्बरों पर क्रोध करके पाँच सौ मुनियों को घानी में पिलवाया। वे मुनि उपसर्ग सहकर परमसमाधि से सिद्धि को प्राप्त हुए।
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फिर उस नगर में बाहु नाम के एक मुनि आये । उनको लोगों ने मना किया कि यहाँ का राज दुष्ट है, इसलिए आप नगर में प्रवेश मत करो । पहिले पाँच सौ मुनियों को घानी में पेल दिया, वह आपका भी वही हाल करेगा । तब लोगों के वचनों से बाहु मुनी को क्रोध उत्पन्न हुआ, अशुभ तैजस समुद्घात से राजा को मंत्री सहित और सब नगर को भस्म कर दिया। राजा और मंत्री सातवें नरक रौरव नामक बिल में गिरे, वहीं बाहु मुनि भी मरकर रौरव बिल में गिरे। इसप्रकार द्रव्यलिंग में भाव के दोष से उपद्रव होते हैं, इसलिए भावलिंग का प्रधान उपदेश है ।। ४९ ।।
आगे इस ही अर्थ पर दीपायन मुनि का उदाहरण कहते हैं -
अवरो वि दव्वसवणो दंसणवरणाणचरणपब्भट्ठो । दीवायणो त्तिणामो अनंतसंसारिओ जाओ ।।५० ॥ अपि द्रव्यश्रमणः दर्शनवरज्ञानचरणप्रभ्रष्टः । दीपायन इति नाम अनन्तसांसारिकः जातः ।। ५० ।।
अपर:
अर्थ - आचार्य कहते हैं कि जैसे पहिले बाहु मुनि कहा वैसे ही और भी दीपायन नाम का द्रव्यश्रमण सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र से भ्रष्ट होकर अनंतसंसारी हुआ है।
भावार्थ - पहिले की तरह इसकी कथा संक्षेप से इसप्रकार है - नौंवे बलभद्र ने श्रीनेमिनाथतीर्थंकर से पूछा कि हे स्वामिन् ! यह द्वारकापुरी समुद्र में है इसकी स्थिति कितने समय तक है ? तब भगवान ने कहा कि रोहिणी का भाई दीपायन तेरा मामा बारह वर्ष पीछे मद्य के निमित्त से क्रोध करके इस पुरी को दग्ध करेगा । इसप्रकार भगवान के वचन सुन निश्चय कर दीपायन दीक्षा लेकर पूर्वदेश में चला गया । बारह वर्ष व्यतीत करने के लिए तप करना शुरू किया और बलभद्र नारायण ने द्वारिका में मद्यनिषेध की घोषणा करा दी । मद्य के बरतन तथा उसकी सामग्री मद्य
इस ही तरह द्रवलिंगी द्वीपायन मुनी भी भ्रष्ट हो । दुर्गति गमनकर दुख सहे अर अनंत संसारी हुए ।।५०॥