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अष्टपाहुड इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय दो-दो लाख हैं, पंचेन्द्रिय तिर्यंच चार लाख, देव चार लाख, नारकी चार लाख, मनुष्य चौदह लाख । इसप्रकार चौरासी लाख हैं। ये जीवों के उत्पन्न होने के स्थान हैं।।४७।। आगे कहते हैं कि द्रव्यमात्र से लिंगी नहीं होता है, भाव से होता है -
भावेण होइ लिंगी ण हु लिंगी होइ दव्वमित्तेण । तम्हा कुणिज भावं किं कीरइ दव्वलिंगेण ।।४८।। भावेन भवति लिंगीन हि भवति लिंगी द्रव्यमात्रेण ।
तस्मात् कुर्या: भावं किं क्रियते द्रव्यलिंगेन ।।४८।। अर्थ – लिंगी होता है सो भावलिंग ही से होता है, द्रव्यलिंग से लिंगी नहीं होता है, यह प्रकट है, इसलिए भावलिंग ही धारण करना, द्रव्यलिंग से क्या सिद्ध होता है ?
भावार्थ - आचार्य कहते हैं कि इससे अधिक क्या कहा जावे, भावलिंग बिना 'लिंगी' नाम ही नहीं होता है, क्योंकि यह प्रगट है कि भाव शुद्ध न देखे तब लोग ही कहें कि काहे का मुनि है? कपटी है। द्रव्यलिंग से कुछ सिद्धि नहीं है, इसलिए भावलिंग ही धारण करने योग्य है ।।४८।। आगे इसी को दृढ़ करने के लिए द्रव्यलिंगधारक को उलटा उपद्रव हुआ, उदाहरण कहते हैं
दंडयणयरं सयलं डहिओ अब्भंतरेण दोसेण। जिणलिंगेण वि बाहू पडिओ सो रउरवे णरए ।।४९।।
दण्डकनगरं सकलं दग्ध्वा अभ्यन्तरेण दोषेण ।
जिनलिंगेनापि बाहुः पतित: स: रौरवे नरके ।।४९।। अर्थ – देखो, बाहु नामक मुनि बाह्य जिनलिंग सहित था तो भी अभ्यन्तर के दोष से समस्त दंडक नामक नगर को दग्ध किया और सप्तम पृथ्वी के रौरव नामक बिल में गिरा ।
भावार्थ - द्रव्यलिंग धारणकर कुछ तप करे, उससे कुछ सामर्थ्य बढ़े, तब कुछ कारण पाकर क्रोध से अपना और दूसरे का उपद्रव करने का कारण बनावे, इसलिए द्रव्यलिंग भावसहित धारण करना ही श्रेष्ठ है और केवल द्रव्यलिंग तो उपद्रव का कारण होता है। इसका उदाहरण बाहु मुनि का बताया। उसकी कथा ऐसे है - ____दक्षिणदिशा में कुम्भकारकटक नगर में दण्डक नाम का राजा था। उसके बालक नाम का
जिनलिंग धरकर बाहुमुनि निज अंतरंग कषाय से। दण्डकनगर को भस्मकर रौरव नरक में जा पड़े।।४९।।