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अष्टपाहुड
प्रायोपगमन संन्यास करे और किसी से वैयावृत्त्य न करावे तथा अपने आप भी न करे, प्रतिमायोग रहे 'प्रायोपगमनमरण' है ।। १६ ।
केवल मुक्तिप्राप्त हो 'केवलीमरण' है ।। १७ ।।
१.
इसप्रकार सत्तरह प्रकार कहे। इनका संक्षेप इसप्रकार है - मरण पाँच प्रकार के हैं पंडित-पंडित, २. पंडित, ३. बालपंडित, ४. बाल, ५. बालबाल । जो दर्शन ज्ञान चारित्र के अतिशय सहित हो वह पंडितपंडित है और इनकी प्रकर्षता जिसके न हो पंडित है, सम्यग्दृष्टि श्रावक वह बालपंडित और पहिले चार प्रकार के पंडित कहे उनमें से एक भी भाव जिसके नहीं हो वह बाल है तथा जो सबसे न्यून हो वह बालबाल है । इनमें पंडितपंडितमरण, पंडितमरण और बालपंडितमरण - ये तीन प्रशस्त सुमरण कहे हैं, अन्यरीति होवे कुमरण है । इसप्रकार जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र एकदेश सहित मरे वह 'सुमरण' है, इसप्रकार सुमरण करने का उपदेश है ।।३२।।
आगे यह जीव संसार में भ्रमण करता है, उस भ्रमण के परावर्तन का स्वरूप मन में धारण कर निरूपण करते हैं। प्रथम ही सामान्यरूप से लोक के प्रदेशों की अपेक्षा से कहते हैं
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सो णत्थि दव्वसवणो परमाणुपमाणमेत्तओ णिलओ । जत्थ ण जाओ ण मओ तियलोयपमाणिओ सव्वो ॥ ३३ ॥
सः नास्ति द्रव्यश्रमण: परमाणुप्रमाणमात्रो निलयः ।
यत्र न जात: न मृत: त्रिलोकप्रमाणकः सर्वः ।। ३३ ।।
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अर्थ - यह जीव द्रव्यलिंग का धारक मुनिपना होते हुए भी जो तीनलोक प्रमाण सर्वस्थान हैं, उनमें एक परमाणुपरिमाण एक प्रदेशमात्र भी ऐसा स्थान नहीं है कि जहाँ जन्म-मरण न किया हो ।
भावार्थ - द्रव्यलिंग धारण करके भी इस जीव ने सर्व लोक में अनन्तबार जन्म और मरण किये, किन्तु ऐसा कोई प्रदेश शेष न रहा कि जिसमें जन्म और मरण न किये हों । इसप्रकार भावलिंग के बिना द्रव्यलिंग से मोक्ष की (निज परमात्मदशा की ) प्राप्ति नहीं हुई - ऐसा जानना ।। ३३ ।।
धरकर दिगम्बर वेष बारम्बार इस त्रैलोक में । स्थान कोई शेष ना जन्मा-मरा ना हो जहाँ ।। ३३ ।।