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बोधपाहुड नहीं है ।।३७।।
दस तो उसमें प्राण होते हैं वे द्रव्यप्राण हैं, पूर्ण पर्याप्ति है, एक हजार आठ लक्षण हैं और गोक्षीर अर्थात् कपूर अथवा चंदन तथा शंख जैसा उसमें सर्वांग धवल रुधिर और मांस है ।।३८।।
इसप्रकार गुणों से संयुक्त सर्व ही देह अतिशयसहित निर्मल है, आमोद अर्थात् सुगंध जिसमें इसप्रकार अरहंत पुरुष औदारिक देह के है ।।३९।।
भावार्थ - यहाँ द्रव्यनिक्षेप नहीं समझना। आत्मा से जुदा ही देह की प्रधानता से 'द्रव्य अरहंत का वर्णन है ।।३७-३८-३९ ।। इसप्रकार द्रव्य अरहंत का वर्णन किया। आगे भाव की प्रधानता से वर्णन करते हैं -
मयरायदोसरहिओ कसायमलवजिओ य सुविशुद्धो। चित्तपरिणामरहिदो केवलभावे मुणेयव्वो।।४०।। मदरागदोषरहित: कषायमलवर्जित: च सुविशुद्धः।
चित्तपरिणामरहितः केवलभावे ज्ञातव्यः ।।४०।। अर्थ - केवलभाव अर्थात् केवलज्ञानरूप ही एक भाव होते हुए अरहंत होते हैं - ऐसा जानना । मद अर्थात् मानकषाय से हुआ गर्व, राग, द्वेष अर्थात् कषायों के तीव्र उदय से होनेवाले प्रीति और अप्रीतिरूप परिणाम इनसे रहित हैं, पच्चीस कषायरूप मल उसका द्रव्यकर्म तथा उनके उदय से हुआ भावमल उससे रहित है, इसीलिए अत्यन्त विशुद्ध है-निर्मल है, चित्तपरिणाम अर्थात् मन के परिणमनरूप विकल्प से रहित है, ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशमरूप मन का विकल्प नहीं है, इसप्रकार केवल एक ज्ञानरूप वीतरागस्वरूप भाव अरहंत' जानना ।।४०।। आगे भाव ही का विशेष कहते हैं -
सम्मइंसणि पस्सदि जाणदिणाणेण दव्वपज्जाया। सम्मत्तगुणविशुद्धो भावो अरहस्स णायव्वो ।।४१।। सम्यग्दर्शनेन पश्यति ज्ञानाति ज्ञानेन द्रव्यपर्यायान्। राग-द्वेष विकार वर्जित विकल्पों से पार हैं। कषायमल से रहित केवलज्ञान से परिपूर्ण हैं।।४०।। सद्दृष्टि से सम्पन्न अर सब द्रव्य-गुण-पर्याय को। जो देखते अर जानते जिननाथ वे अरिहंत हैं ।।४१।।