________________
बोधपाहुड
१०३ तत् तीर्थं जिनमार्गे भवति यदि शान्तभावेन ।।२७।। अर्थ – जिनमार्ग में वह तीर्थ है जो निर्मल उत्तमक्षमादिक धर्म तथा तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षण शंकादिमलरहित निर्मल सम्यक्त्व तथा इन्द्रिय व मन को वश में करना, षट्काय के जीवों से रक्षा करना इसप्रकार जो निर्मल संयम तथा अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन, कायक्लेश - ऐसे बाह्य छह प्रकार के तप और प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग व ध्यान ऐसे छह प्रकार के अंतरंग तप - इसप्रकार बारह प्रकार के निर्मल तप
और जीव-अजीव आदि पदार्थों का यथार्थ ज्ञान, ये 'तीर्थ' हैं, ये भी यदि शांतभावसहित हो, कषायभाव न हो तब निर्मल तीर्थ हैं, क्योंकि यदि ये क्रोधादिकभावसहित हों तो मलिनता हो और निर्मलता न रहे ।।
भावार्थ - जिनमार्ग में तो इसप्रकार 'तीर्थ' कहा है। लोग सागर-नदियों को तीर्थ मानकर स्नान करके पवित्र होना चाहते हैं, वह शरीर का बाह्यमल इनसे कुछ उतरता है, परन्तु शरीर के भीतर का धातु-उपधातुरूप अन्तर्मल इनसे उतरता नहीं है तथा ज्ञानावरण आदि कर्मरूप मल और अज्ञान राग-द्वेष-मोह आदि भावकर्मरूप मल आत्मा के अन्तर्मल हैं, वह तो इनसे कुछ भी उतरते नहीं हैं, उल्टा हिंसादिक से पापकर्मरूप मल लगता है, इसलिए सागर-नदी आदि को तीर्थ मानना भ्रम है। जिससे तिरे सो 'तीर्थ' है इसप्रकार जिनमार्ग में कहा है, उसे ही संसारसमुद्र से तारनेवाला जानना ।।२७।।
इसप्रकार तीर्थ का स्वरूप कहा। (१०) आगे अरहंत का स्वरूप कहते हैं -
णामे ठवणे हि संदव्वे भावे हि सगुणपज्जाया। चउणागदि संपदिमे भावा भावंति अरहतं ।।२८।। नान्मिसंस्थापनायां हिच संद्रव्येभावेचसगुणपर्याया:।
च्यवनमागति: संपत् इमे भावा भावयंति अर्हन्तम् ।।२८।। अर्थ – नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव - ये चार भाव अर्थात् पदार्थ हैं, ये अरहंत को बतलाते हैं और सगुणपर्यायाः अर्थात् अरहंत के गुण पर्यायोंसहित तथा चउणा अर्थात् च्यवन और १. सं. प्रति में 'संपदिम' पाठ है। २. सगुणपज्जाया' इस पद की छाया में 'स्वगुण पर्यायाः' सं. प्रति में है।
नाम थापन द्रव्य भावों और गुणपर्यायों से। च्यवन आगति संपदा से जानिये अरिहंत को ।।२८।।