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अष्टपाहुड मोह से रहित होकर, परमार्थस्वरूप आत्मिकधर्म को साधकर, मोक्षसुख को प्राप्त कर लिया ऐसे तीर्थंकर जिन हैं, वे ही 'देव' हैं। __ अज्ञानी लोग जिनको देव मानते हैं, उनके धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष नहीं है, क्योंकि कई हिंसक हैं, कई विषयासक्त हैं, मोही हैं, उनके धर्म कैसा ? अर्थ और काम की जिनके वांछा पाई जाती है, उनके अर्थ, काम कैसा ? जन्म, मरण सहित हैं, उनके मोक्ष कैसे ? ऐसा देव सच्चा जिनदेव ही है वही भव्यजीवों के मनोरथ पूर्ण करते हैं, अन्य सब कल्पित देव हैं ।।२५।।
इसप्रकार देव का स्वरूप कहा - (९) आगे तीर्थ का स्वरूप कहते हैं -
वयसम्मत्तविसुद्धे पंचेंदियसंजदे णिरावेक्खे। पहाएउ मुणी तित्थे, दिक्खासिक्खासुण्हाणेण ।।२६।।
व्रतसम्यक्त्वविशुद्ध पंचेंद्रियसंयते निरपेक्षे।
स्नातु मुनिः तीर्थे दीक्षाशिक्षासुस्नानेन ।।२६।। अर्थ – व्रत सम्यक्त्व से विशुद्ध और पाँच इन्द्रियों से संयत अर्थात् संवरसहित तथा निरपेक्ष अर्थात् ख्याति, लाभ, पूजादिक इस लोक के फल की तथा परलोक में स्वर्गादिक के भोगों की अपेक्षा से रहित ऐसे आत्मस्वरूप तीर्थ में दीक्षा-शिक्षारूप स्नान से पवित्र होओ।
भावार्थ - तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षण-सहित, पाँच महाव्रत से शुद्ध और पाँच इन्द्रियों के विषयों से विरक्त, इस लोक-परलोक में विषयभोगों की वांछा से रहित ऐसे निर्मल आत्मा के स्वभावरूप तीर्थ में स्नान करने से पवित्र होते हैं, ऐसी प्रेरणा करते हैं ।।२६।। आगे फिर कहते हैं -
जं णिम्मलं सुधम्म सम्मत्तं संजमं तवं णाणं । तं तित्थं जिणमग्गे हवेइ जदि सतिभावेण ।।२७।।
यत् निर्मलं सुधर्मं, सम्यक्त्वं संयमं तपः ज्ञानम् । सम्यक्त्वव्रत से शुद्ध संवर सहित अर इन्द्रियजयी। निरपेक्ष आतमतीर्थ में स्नान कर परिशुद्ध हों ।।२६।। यदि शान्त हों परिणाम निर्मलभाव हों जिनमार्ग में। तो जान लो सम्यक्त्व संयम ज्ञान तप ही तीर्थ है ।।२७।।