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चारित्रपाहुड
और संयम - इन दोनों के आश्रय से चारित्र सम्यक्त्वचरणस्वरूप और संयमचरणस्वरूप दो प्रकार से उपदेश किया है, आचार्य ने चारित्र के कथन को संक्षेपरूप से कहकर संकोच किया है।।४४।। आगे इस चारित्रपाहुड को भाने का उपदेश और इसका फल कहते हैं -
भावेह भावसुद्धं फुडु रइयं चरणपाहुणं चेव। लहु चउगइ चइऊणं अइरेणऽपुणब्भवा होई ।।४५।। __ भावयत भावशुद्ध स्फुटं रचितं चरणप्राभृतं चैव।
लघु चतुर्गती: त्यक्त्वा अचिरेण अपुनर्भवा: भवत ।।५।। अर्थ – यहाँ आचार्य कहते हैं कि हे भव्यजीवों ! यह चरण अर्थात् चारित्रपाहुड हमने स्फुट प्रगट करने हेतु बनाया है, उसको तुम अपने शुद्धभाव से भाओ। अपने भावों में बारम्बार अभ्यास करो, इससे शीघ्र ही चार गतियों को छोड़कर अपुनर्भव मोक्ष तुम्हें होगा, फिर संसार में जन्म नहीं पाओगे।
भावार्थ - इस चारित्रपाहुड को बांचना, पढ़ना, धारण करना, बारम्बार भाना, अभ्यास करना – यह उपदेश है, इससे चारित्र का स्वरूप जानकर धारण करने की रुचि हो, अंगीकार करे तब चार गतिरूप संसार के दुःख से रहित होकर निर्वाण को प्राप्त हो, फिर संसार में जन्म धारण नहीं करे, इसलिए जो कल्याण को चाहते हैं, वे इसप्रकार करो ।।४५।।
(छप्पय) चारित दोय प्रकार देव जिनवर ने भाख्या। समकित संयम चरण ज्ञानपूरव तिस राख्या ।। जे नर सरधावान याहि धारै विधि सेती। निश्चय अर व्यवहार रीति आगम में जेती।। जब जगधंधा सब मेटि कैं निजस्वरूप में थिर रहै।
तब अष्टकर्मकू नाशि कै अविनाशी शिव कू लहै ।।१।। ऐसे सम्यक्त्वचरणचारित्र और संयमचरणचारित्र दो प्रकार के चारित्र का स्वरूप इस प्राभृत में कहा ।
(दोहा) जिनभाषित चारित्रकं जे पालैं मुनिराज।। स्फुटचित यह चरित पहिड पहा पाधन भावं से।
तिनिळचरेण नमूसदापाऊतिनि गुणसाज॥२॥
तुम चतर्गति को परिकर अपुनर्भव है। जाओगे।।४५।। इति श्रीकन्दकुन्दस्वामि विरचित चारित्रप्रभृत की पण्डित जयचन्द्र छाबड़ा कृत
देशभाषावचनिका का हिन्दी भाषानूवाद समाप्त ।।३।।