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चारित्रपाहुड योगी मुनि थोड़े ही काल में निर्वाण को प्राप्त करता है।
भावार्थ – सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र त्रयात्मक मोक्षमार्ग है, इसको श्रद्धापूर्वक जानने का उपदेश है, क्योंकि इसको जानने से मुनियों को मोक्ष की प्राप्ति होती है ।।४०।। ___ आगे कहते हैं कि इसप्रकार निश्चयचारित्ररूप ज्ञान का स्वरूप कहा, जो इसको पाते हैं, वे शिवरूप मन्दिर में रहनेवाले होते हैं -
'पाऊण णाणसलिलं णिम्मलसुविशुद्धभावसंजुता। होंति सिवालयवासी तिहुवणचूड़ामणी सिद्धा ।।४१।।
प्राप्य ज्ञानसलिलं निर्मलसुविशुद्धभावसंयुक्ताः।
भवंति शिवालयवासिन: त्रिभुवनचूड़ामणय: सिद्धाः ।।४१।। अर्थ – जो पुरुष इस जिनभाषित ज्ञानरूप जल को प्राप्त करके अपने निर्मल भले प्रकार विशुद्धभाव संयुक्त होते हैं, वे पुरुष तीन भुवन के चूड़ामणि और शिवालय अर्थात् मोक्षरूपी मन्दिर में रहनेवाले सिद्ध परमेष्ठी होते हैं।
भावार्थ - जैसे जल से स्नान करके शुद्ध होकर उत्तम पुरुष महल में निवास करते हैं, वैसे ही यह ज्ञान जल के समान है और आत्मा के रागादिक मैल लगने से मलिनता होती है, इसलिए इस ज्ञानरूप जल से रागादिक मल को धोकर जो अपनी आत्मा को शुद्ध करते है, वे मुक्तिरूप महल में रहकर आनन्द भोगते हैं, उनको तीन भुवन के शिरोमणि सिद्ध कहते हैं ।।४१।।
आगे कहते हैं कि जो ज्ञानगुण से रहित हैं, वे इष्ट वस्तु को नहीं पाते हैं, इसलिए गुण दोष को जानने के लिए ज्ञान को भले प्रकार से जानना -
णाणगुणेहिं विहीणा ण लहंते ते सुइच्छियं लाहं । इय णाउं गुणदोसं तं सण्णाणं वियाणेहिं ।।४२।।
ज्ञानगुणैः विहीना न लभते ते स्विष्टं लाभं। इति ज्ञात्वा गुणदोषौ तत् सद्ज्ञानं विजानीहि ।।४२।।
१. पाठान्तर: - पीऊण, २. पाठान्तरः - पीत्वा
ज्ञानजल में नहा निर्मल शुद्ध परिणति युक्त हो। त्रैलोक्यचूडामणि बने एवं शिवालय वास हो॥४१।। ज्ञानगुण से हीन इच्छितलाभ को ना प्राप्त हों। यह जान जानो ज्ञान को गुणदोष को पहिचानने ।।४२।।