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चारित्रपाहुड
तत्त्वार्थसूत्र में पाँचवीं भावना अनुवीचीभाषण कही है सो इसका अर्थ यह है कि जिनसूत्र के अनुसार वचन बोले और यहाँ मोह का अभाव कहा, वह मिथ्यात्व के निमित्त से सूत्रविरुद्ध बोलता है, मिथ्यात्व का अभाव होने पर सूत्रविरुद्ध नहीं बोलता है, अनुवीचीभाषण का भी यही अर्थ हुआ इसमें अर्थभेद नहीं है ।।३३।। आगे अचौर्य महाव्रत की भावना कहते हैं -
सुण्णायारणिवासो 'विमोचियावास जं परोधं च । एसणसुद्धिसउत्तं साहम्मीसंविसंवादो ।।३४।।
शून्यागारनिवास: विमोचितावास: यत् परोधं च ।
एषणाशुद्धिसहितं साधर्मिसमविसंवादः ।।३४।। अर्थ – शून्यागार अर्थात् गिरि, गुफा, तरु, कोटरादि में निवास करना, विमोचितावास अर्थात् जिसको लोगों ने किसी कारण से छोड़ दिया हो - इसप्रकार के गृह-ग्रामादिक में निवास करना, परोपरोध अर्थात् जहाँ दूसरे की रुकावट न हो, वस्तिकादिक को अपनाकर दूसरे को रोकना, इसप्रकार नहीं करना, एषणाशुद्धि अर्थात् आहार शुद्ध लेना और साधर्मियों से विसंवाद नहीं करना - ये पाँच भावना तृतीय महाव्रत की हैं।
भावार्थ - मुनियों की वस्तिका में रहना और आहार लेना ये दो प्रवृत्तियाँ अवश्य होती हैं। लोक में इन्हीं के निमित्त अदत्त का आदान होता है । मुनियों को ऐसे स्थान पर रहना चाहिए, जहाँ अदत्त का दोष न लगे और आहार भी इसप्रकार लें, जिसमें अदत्त का दोष न लगे तथा दोनों की प्रवृत्ति में साधर्मी आदिक से विसंवाद न उत्पन्न हो । इसप्रकार ये पाँच भावना कही हैं, इनके होने से अचौर्य महाव्रत दृढ़ रहता है ।।३४।। आगे ब्रह्मचर्य महाव्रत की भावना कहते हैं -
महिलालोयणपुव्वरइसरणसंसत्तवसहिविकहाहिं।
पुट्ठियरसेहिं विरओ भावण पंचावि तुरियम्मि ।।३५।। १. पाठान्तर - विमोचितावास ।
हो विमोचितवास शून्यागार हो उपरोध बिन । हो एषणाशुद्धी तथा संवाद हो विसंवाद बिन ।।३४।। त्याग हो आहार पौष्टिक आवास महिलावासमय । भोगस्मरण महिलावलोकन त्याग हो विकथा कथन ।।३५।।