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चारित्रपाहुड
इसप्रकार जानना ।। २५ ।।
आगे चार शिक्षाव्रतों को कहते हैं
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सामाइयं च पढमं बिदियं च तहेव पोसहं भणियं । तइयं च अतिहिपुज्जं चउत्थ सल्लेहणा अंते ।। २६ ।। सामाइकं च प्रथमं द्वितीयं च तथैव प्रोषधः भणित: । तृतीयं च अतिथिपूजा चतुर्थं सल्लेखना अन्ते ।। २६ ।।
अर्थ – सामायिक तो पहिला शिक्षाव्रत है, वैसे ही दूसरा प्रोष व्रत है, तीसरा अतिथि का पूजन है, चौथा अन्तसमय सल्लेखना व्रत है।
भावार्थ - यहाँ शिक्षा शब्द से ऐसा अर्थ सूचित होता है कि आगामी मुनिव्रत की शिक्षा इनमें है, जब मुनि होगा तब इसप्रकार रहना होगा। सामायिक कहने से तो रागद्वेष का त्याग कर, सब गृहारंभसंबंधी क्रिया से निवृत्ति कर एकांत स्थान में बैठकर प्रभात, मध्याह्न, अपराह्न कुछ काल की मर्यादा करके अपने स्वरूप का चिंतवन तथा पंचपरमेष्ठी की भक्ति का पाठ पढ़ना, उनकी वंदना करना इत्यादि विधान करना सामायिक है । इसप्रकार ही प्रोषध अर्थात् अष्टमी और चौदस के पर्वों में प्रतिज्ञा लेकर धर्म कार्यों में प्रवर्तना प्रोषध है। अतिथि अर्थात् मुनियों की पूजा करना, उनको आहारदान देना अतिथिपूजन है। अंत समय में काय और कषाय को कृश करना समाधिमरण करना अन्तसल्लेखना है, इसप्रकार चार शिक्षाव्रत है ।
यहाँ प्रश्न - तत्त्वार्थसूत्र में तीन गुणव्रतों में देशव्रत कहा और भोगोपभोगपरिमाण को शिक्षाव्रत में कहा तथा सल्लेखना को भिन्न कहा, वह कैसे ? इसका समाधान - यह विवक्षा का भेद है, यहाँ देशव्रत दिग्व्रत में गर्भित है और सल्लेखना को शिक्षाव्रतों में कहा है, कुछ विरोध नहीं है ।। २६ ।।
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आगे कहते हैं कि संयमचरण चारित्र में श्रावक धर्म को कहा, अब यतिधर्म को कहते हैं - एवं सावयधम्मं संजमचरणं उदेसियं सयलं । सुद्धं संजमचरणं जइधम्मं णिक्कलं वोच्छे ।।२७।। एवं श्रावकधर्मं संयमचरणं उपदेशितं सकलम् । सामायिका प्रोषध तथा व्रत अतिथिसंविभाग है । सल्लेखना ये चार शिक्षाव्रत कहे जिनदेव ने ।। २६ ।। इस तरह संयमचरण श्रावक का कहा जो सकल है । अनगार का अब कहूँ संयमचरण जो कि निकल है ।। २७ ।।