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अष्टपाहुड
दिया धन, परमहिला अर्थात् परस्त्री इनका तो परिहार अर्थात् त्याग और परिग्रह तथा आरंभ का परिमाण - इसप्रकार पाँच अणुव्रत हैं।
भावार्थ - यहाँ थूल कहने का ऐसा अर्थ जानना कि जिसमें अपना मरण हो, पर का मरण हो, अपना घर बिगड़े, पर का घर बिगड़े, राजा के दण्ड योग्य हो, पंचों के दण्ड योग्य हो इसप्रकार मोटे अन्यायरूप पापकार्य जानने । इसप्रकार स्थूल पाप राजादिक के भय से न करे वह व्रत नहीं है, इनको तीव्र कषाय के निमित्त से तीव्रकर्मबंध के निमित्त जानकर स्वयमेव न करने के भावरूप त्याग हो वह व्रत है। इसके ग्यारह स्थानक कहे, इनमें ऊपर-ऊपर त्याग बढता जाता है सो इसकी उत्कृष्टता तक ऐसा है कि जिन कार्यों में त्रस जीवों को बाधा हो इसप्रकार के सब ही कार्य छूट जाते हैं इसलिए सामान्य ऐसा नाम कहा है कि त्रसहिंसा का त्यागी देशव्रती होता है। इसका विशेष कथन अन्य ग्रन्थों से जानना ।।२४।। आगे तीन गुणव्रतों को कहते हैं -
दिसिविदिसिमाण पढमंअणत्थदंडस्सवजणं बिदियं । भोगोपभोगपरिमा इयमेव गुणव्वया तिण्णि ।।२५।। दिग्विदिग्मानं प्रथमं अनर्थदण्डस्य वर्जनं द्वितीयम्।
भोगोपभोगपरिमाणं इमान्येव गुणव्रतानि त्रीणि ।।२५।। अर्थ – दिशा विदिशामें गमन का परिमाण वह प्रथम गुणव्रत है, अनर्थदण्ड का वर्जना द्वितीय गुणव्रत है और भोगोपभोग का परिमाण तीसरा गुणव्रत है, इसप्रकार ये तीन गुणव्रत हैं। __ भावार्थ - यहाँ गुण शब्द तो उपकार का वाचक है, ये अणुव्रतों का उपकार करते हैं। दिशा विदिशा अर्थात् पूर्व दिशादिक में गमन करने की मर्यादा करे । अनर्थदण्ड अर्थात् जिन कार्यों में अपना प्रयोजन न सधे इसप्रकार पापकार्यों को न करे।
यहाँ कोई पूछे - प्रयोजन के बिना तो कोई भी जीव कार्य नहीं करता है, कुछ प्रयोजन विचार करके ही करता है फिर अनर्थदण्ड क्या ?
इसका समाधान - सम्यग्दृष्टि श्रावक होता है वह प्रयोजन अपने पद के योग्य विचारता है, पद के सिवाय सब अनर्थ है । पापी पुरुषों के तो सब ही पाप प्रयोजन है, उसकी क्या कथा ? भोग कहने से भोजनादिक और उपभोग कहने से स्त्री, वस्त्र, आभूषण, वाहनादिक का परिमाण करे -
दिशि-विदिशका परिमाण दिग्वत अर अनर्थकदण्डव्रत। परिमाण भोगोपभोग का ये तीन गुणव्रत जिन कहें ।।२५।।