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ऐसे क्या पाप किए! “अप्रादुर्भाव खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ।।४४ ।।" यत् खलु कषाय योगात् प्राणानां द्रव्यभावरूपाणम्।
व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ।।४३॥ निश्चय से आत्मा में रागादि भावों का प्रगट न होना ही अहिंसा है, और उन रागादि भावों का उत्पन्न होना ही निश्चय से हिंसा है।
कषाय रूप परिणमित हुए मन, वचन, काय के योग से स्व-पर के द्रव्य व भाव दोनों प्रकार के प्राणों का व्यपरोपण करना-घात करना ही हिंसा है।"
जिनागम में हिंसा-अहिंसा की व्याख्या अत्यन्त सूक्ष्म रूप में की गई है। सर्वत्र भावों की मुख्यता से ही हिंसा के विविध रूपों का वर्णन है।
पाँचों पापों को एवं कषायादि को हिंसा में ही सम्मिलित करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं - __ “आत्मपरिणामहिंसन् हेतुत्वात् सर्वमेवहिंसैतत् ।
अमृतवचनादि केवलमुदाहृत शिष्यवोधाय ।।" आत्मा के शुद्धोपयोग रूप परिणामों के घातक होने से ये सब पाँचों पाप एवं कषायादि सब हिंसा ही है, असत्य वचनादि के भेद तो केवल शिष्य को समझाने के लिए कहे हैं।
आचार्य अमृतचन्द्र ने आत्मा में मोह-राग-द्वेष की उत्पत्ति और उनके निमित्त से स्व-पर प्राण व्यपरोपण को हिंसा कहा है। झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह के माध्यम से भी आत्मा में मोह-राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है और स्वपर प्राणों को पीड़ा भी पहुँचती है - इस कारण झूठ, चोरी आदि पाप भी प्रकारान्तर से हिंसा ही है।
"सूक्ष्मापि न खलु हिंसा परवस्तुनिबन्धना भवति पंसा।
हिंसायतन निवृत्तिः परिणाम विशुद्धये तदापि कार्या ।।" १. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय - ४३,४४
२. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय - ४२ ३. पुरुषार्थसिद्धयुपाय - ४९
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय और आचार्य अमृतचन्द्र
यद्यपि परवस्तु के कारण सूक्ष्म हिंसा भी नहीं होती तथापि परिणामों की निर्मलता के लिए हिंसा के आयतन बाह्य परिग्रहादि से एवं अन्तरंग कषायादि का त्यागकर उनसे निवृत्ति लेना उचित है।"
इस आत्मा के जिस अंश में सम्यग्दर्शन है, उस अंश (पर्याय) से बंध नहीं है तथा जिस अंश में राग है, उस अंश से बन्ध होता है।
जिस अंश में इसके चारित्र है उस अंश से बन्ध नहीं और जिस अंश में राग है, उस अंश से बन्ध होता है।
जीव के तीन प्रकार हैं (१) बहिरात्मा (२) अन्तरात्मा (३) परमात्मा । बहिरात्मा के तो रत्नत्रय हैं ही नहीं, अतः उनके तो सर्वथा बंध है परमात्मा का रत्नत्रय परिपूर्ण हो चुका है। अतः उनके बन्ध का सर्वथा अभाव है। बस एक अन्तरात्मा ही है, जिनके अंशरूप में रत्नत्रय प्रगट होता है। वे अन्तरात्मा चतुर्थ गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक होते हैं। उनके जिस अंश में रत्नत्रय प्रगट हुआ है, उस अंश में राग का अभाव होने से कर्मबन्ध नहीं होता और जिस अंश में राग रहता है, उस अंश से कर्मबन्ध होता है।
यद्यपि आचार्य अमृतचन्द्र एक विशुद्ध आध्यात्मिक सन्त पुरुष हैं और वे अपनी लेखनी और काव्य प्रतिभा का पूरा उपयोग स्व-पर कल्याण में ही करना चाहते हैं, अतः उनके द्वारा साहित्यिक सौन्दर्य या काव्यकला के प्रदर्शन की कल्पना भी नहीं की जा सकती, तथापि उनमें गहन काव्यप्रतिभा होने से उनके साहित्य में स्वभावतः साहित्यिक सौन्दर्य भी आ गया है। ___ संस्कृत भाषा पर तो आचार्य अमृतचन्द्र का असाधारण अधिकार है ही, प्राकृत भाषा के भी वे मर्मज्ञ विद्वान थे। अन्यथा कुन्दकुन्द को कैसे पढ़/समझ सकते थे। उनके समयसार, प्रवचनसार जैसे गूढ गम्भीर शास्त्रों का दोहन करना एवं उसे सुसंस्कृत सशक्त भाषा में ऐसी अभिव्यक्ति देना अमृतचन्द्र जैसे समर्थ आचार्य का ही काम था।
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