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ऐसे क्या पाप किए ! एक प्रकार से यह पूरा ग्रन्थ ही निश्चय-व्यवहार के समन्वय की सुगंध से महक उठा है।
नयविभाग की यथार्थ जानकारी के बिना आज निश्चय-व्यवहार के नाम पर समाज में जो विग्रह चल रहा है, उसके शमन का एकमात्र उपाय इस ग्रन्थ का अधिक से अधिक पठन-पाठन करना ही है। __ आचार्य अमृतचन्द्र जिनागम के अध्ययन के लिए निश्चय-व्यवहार का ज्ञान आवश्यक मानते हैं। उनका कहना है कि निश्चय-व्यवहार के ज्ञान बिना शिष्य जिनागम का रहस्य नहीं समझ सकता, तथा जिनागम के अभ्यास का अविकल फल भी प्राप्त नहीं कर सकेगा। वे कहते हैं -
“व्यवहारनिश्चयौ य: प्रबुध्य तत्त्वेन भवति मध्यस्थः।
प्राप्नोति देशनाया: स एव फलमविकलं शिष्यः।।८।' जो जीव व्यवहारनय और निश्चयनय को वस्तुस्वरूप से यथार्थ जानकर मध्यस्थ होता है, वह ही उपदेश का अविकल फल प्राप्त करता है।"
मोक्षमार्ग में निश्चय-व्यवहार का स्थान निर्धारित करनेवाली गाथा प्रस्तुत करके टीकाकार पण्डित टोडरमलजी कहते हैं कि “हमें पहले दोनों नयों को भले प्रकार जानना चाहिए, पश्चात् उन्हें यथायोग्य अंगीकार करना चाहिए। किसी एक नय के पक्षपाती होकर हठग्राही नहीं होना चाहिए। वे कहते हैं -
"जड़ जिणमयं पवजह ता मा व्यवहार णिच्छएमुयह।
एक्केण विणा छिज्जड़ तित्थं अण्णेणउण तच्च ।।१९।। यदि तू जिनमत में प्रवर्तन करना चाहता है तो व्यवहार और निश्चय को मत छोड़। यदि निश्चय का पक्षपाती होकर व्यवहार को छोड़ेगा तो रत्नत्रय स्वरूप धर्मतीर्थ का अभाव होगा और यदि व्यवहार का पक्षपाती होकर निश्चय को छोड़ेगा तो शुद्धतत्त्व का अनुभव नहीं होगा।" १. पुरुषार्थसिद्धयुपाय छन्द -८ २. अनगार धर्मामृतः पंडित आशाधरजी प्रथम अध्याय, पृष्ट - १९
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय और आचार्य अमृतचन्द्र
१११ यह गाथा आचार्य अमृतचन्द्र को भी अत्यन्त प्रिय थी। उन्होंने आत्मख्याति में इसे उद्धृत किया है। वे अपनी टीकाओं में सहजरूप से कोई उद्धरण देते ही नहीं हैं, तथापि इस गाथा को उन्होंने उद्धृत किया है। ___ मोक्षमार्ग का आरम्भ करते हुए एवं सम्यग्दर्शन की प्राप्ति की प्रेरणा देते हुए पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में आचार्य कहते हैं -
"तत्रादौ सम्यक्त्वं समुपाश्रयणीयमखिल यत्नेन।
तस्मिन् सत्येव यतो भवति ज्ञानं चरित्रं च ।।२१।।' इन तीनों में सर्वप्रथम सम्पूर्ण प्रयत्नों से सम्यग्दर्शन की उपासना करना चाहिये, क्योंकि उसके होने पर ही ज्ञान और चारित्र सम्यक् होते हैं।"
उन्होंने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की परिभाषायें निश्चय-व्यवहार की संधि पूर्वक ही दी है, जो इस प्रकार हैं - __“जीवादि पदार्थों का विपरीत अभिनिवेश रहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है और वह निश्चय से आत्मरूप ही है।
जीवादि पदार्थों का संशय-विपर्यय-अनध्यवसाय रहित यथार्थ निर्णय सम्यग्ज्ञान है और वह सम्यग्ज्ञान निश्चय से आत्मरूप ही है।
समस्त सावद्ययोग और सम्पूर्ण कषायों से रहित पर पदार्थों से विरक्तरूप आत्मा की निर्मलता सम्यक्चारित्र है और वह सम्यक्चारित्र निश्चय से आत्मस्वरूप ही है।"
चारित्र के प्रकरण में आचार्य अमृतचन्द्र ने हिंसा-अहिंसा का जैसा मौलिक चिन्तन प्रस्तुत किया है, वैसा अन्यत्र कहीं नहीं मिलता।
हिंसा-अहिंसा की परिभाषा दर्शाते हुए प्रस्तुत ग्रन्थ में ही आचार्य लिखते हैं
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१. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय छन्द - २१