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________________ ऐसे क्या पाप किए ! प्रस्तुत ग्रन्थ की भाषा अत्यन्त सरल, सुबोध और प्रांजल है। जहाँ एक ओर इस ग्रन्थ में उनकी संस्कृत भाषा इतनी सरल, सहज व बोधगम्य है, वहीं दूसरी ओर उनके टीका ग्रन्थों में लम्बी-लम्बी शैलियों पर समान अधिकार है। वे केवल आध्यात्मिक सन्त ही नहीं, बल्कि एक रससिद्ध कवि एवं विचारशील लेखक भी हैं। __ आपकी पद्य शैली में स्पष्टता, सुबोधता, मधुरता और भावाभिव्यक्ति की अद्भुत सामर्थ्य है। सभी पद्य प्रसाद गुण संयुक्त और शांत रस से सराबोर हैं। यद्यपि यह सम्पूर्ण ग्रंथ आर्या छन्द में है, तथापि परम अध्यात्म तरंगिणी आदि आचार्य अमृतचन्द्र ने हिंसा-अहिंसा के अनेक भंगों की मीमांसा की है, जो मूलतः पठनीय है। ___ जैन दर्शन का मूल “वस्तुस्वातंत्र्य" जैसा पुरुषार्थसिद्धयुपाय में प्रतिपादित हुआ है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। कार्य स्वयं में ही होता है, स्वयं से ही होता है पर पर पदार्थ तो उसमें निमित्त मात्र ही होते हैं। निमित्त-उपादान की अपनी-अपनी मर्यादायें हैं। जीव के परिणाम रूप भावकर्म एवं पुद्गल के परिणामरूप द्रव्यकर्म में परस्पर क्या सम्बन्ध है - इस बात को वे इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "जीवकृतं परिणाम निमित्त मात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्म भावेन ।। परिणममानस्य चितचिदात्मकैः स्वयमपिस्वकैर्भावैः । ___ भवति हि निमित्तमात्रं पौद्गलिकं कर्म तस्यापि।। जीव के रागादि परिणामों का निमित्त मात्र पाकर कार्माण वर्गणा स्वयं ही कर्मरूप में परिणमित होती हैं। इसीप्रकार जीव भी कर्मोदय का निमित्त पाकर स्वयं ही रागादि भावरूप परिणमता है।" ___ "रत्नत्रय ही मुक्ति का कारण है और रत्नत्रय मुक्ति का ही कारण है।" - इस तथ्य को भी इसमें बड़ी खूबी से उजागर किया गया है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप निश्चय रत्नत्रय ही मुक्ति का कारण है, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय और आचार्य अमृतचन्द्र शुभभाव रूप व्यवहार रत्नत्रय अर्थात् रागभाव मुक्ति का कारण नहीं है। इसीप्रकार सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र निश्चय से मुक्ति के ही कारण हैं, बन्ध के कारण रंचमात्र नहीं हैं। रत्नत्रय और राग का फल बताते हुए वे साफ-साफ लिखते हैं - "येनांशेन सुदृष्टिस्तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ।। येनांशेन ज्ञानं तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ।। येनांशेन चरित्रं तेनाशेनास्य बन्धनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशनास्य बन्धनं भवति ।।' इस आत्मा के जितने अंश में सम्यग्दर्शन है, उतने अंश में बन्ध नहीं है; परन्तु जितने अंश में राग है, उतने अंश में बन्ध होता है। जितने अंश में आत्मा के ज्ञान (सम्यग्ज्ञान) है, उतने अंश में बंध नही है, परन्तु जितने अंश में राग है उतने अंश में बंध होता है। जितने अंश में इसके चारित्र (सम्यक्चारित्र) हैं, उतने अंश में इसके बंध नहीं होता है।" इसप्रकार हम देखते हैं कि आचार्य अमृतचन्द का साहित्य जहाँ एक ओर अध्यात्म का अमृतरस से सराबोर है, वही दूसरी ओर इसकी पद्यकाव्यों में विविध प्रकार के छन्दों की इन्द्रधनुषी छटा भी दर्शनीय है। अहिंसा के वास्तविक स्वरूप एवं रत्नत्रय के स्वरूप को निश्चयव्यवहार की संधि को गहराई से समझने के लिए पुरुषार्थसिद्धयुपाय का आद्योपान्त अध्ययन एक बार अवश्य करें। (58) २. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक - २१२,२१३,२१४
SR No.008338
Book TitleAise Kya Pap Kiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size489 KB
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