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ऐसे क्या पाप किए !
पुण्य की या शुभ की चर्चा करना या प्रेरणा देना गलत नहीं है, देना ही चाहिए; परन्तु साथ में धर्म की व्याख्या स्पष्ट करते हुए दोनों में अन्तर भी स्पष्ट करते जाना चाहिए ताकि दोनों में मिलावट नहीं हो, भले ही पुण्य धर्म नहीं है; परन्तु भूमिकानुसार पुण्य कार्य भी होंगे ही। भजन, स्तुति, पूजा-पाठ लिखते समय कविगण स्थूल कथन ही कर देते हैं, और भक्ति भावनावश उपचार कथन में ऐसा चल जाता है; अतः इसे इसी अभिप्राय से लेना चाहिए। तथा पाप से बचने के लिए और परमात्मा बनने के लिए देव-शास्त्र-गुरु की शरण में तो आना ही होता है जो कि शुभभाव ही है।
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यहाँ ज्ञातव्य यह है कि आत्मा में स्वभाव और विभाव रूप से दो प्रकार की परिणति होती है। स्वभाव परिणति तो वीतराग भाव रूप है और विभाव परिणति राग-द्वेष रूप है। इन राग व द्वेष में द्वेष तो सर्वथा पापरूप ही है, परन्तु राग प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद से दो प्रकार का है। प्रशस्त राग पुण्य हैं और अप्रशस्त राग पाप हैं। सम्यग्दर्शन उत्पन्न होने के पहले स्वभाव भाव का उदय ही नहीं होता, अतः मिथ्यात्व की दशा में जीव की शुभ या अशुभ रूप विभाव परिणति ही होती है तथा सम्यग्दर्शन होने के बाद कर्म का सर्वथा अभाव होने तक स्वभाव एवं विभाव दोनों परिणतियाँ रहतीं हैं। उनमें स्वभाव परिणति संवर- निर्जरा और मोक्ष की जननी है और विभाव परिणति संसार के कारणभूत कर्म बंध करती है।
कहा भी है- “जावत शुद्धोपयोग पावत ना ही मनोग । तावत ही ग्रहण जोग कही पुन्न करनी ।।
जबतक शुद्धोपयोग रूप वीतराग दशा नहीं हो जाती, तबतक मुक्ति मार्ग पुण्यकार्य करने योग्य हैं ऐसा आचार्य कहते हैं परन्तु ज्ञानी पुण्य और धर्म के अन्तर को स्पष्ट जानते हैं, उनमें मिलावट नहीं करते।
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आध्यात्मिक पंच सकार : सुखी होने का सूत्र
जैसे पेट दर्द से पीड़ित व्यक्ति को चतुर वैद्य सर्वप्रथम उसके पेट शोधन के लिए सोंफ, सोंठ, सनाय, सेंधा और सौंचा (काला) नमक - इन पाँच वस्तुओं से बना 'पंच सकार' चूर्ण देता है - उसीप्रकार भवताप से पीड़ित प्राणियों का दुःख-दर्द मिटाने के लिए भी आत्म-विकार शोधक एक नुस्खा है, जिसका नाम है आध्यात्मिक पंच सकार।
आत्म-शोधन करनेवाले 'आध्यात्मिक पंच सकार' चूर्ण के प्रत्येक पद का प्रथम अक्षर भी 'स' से शुरू होता है और संख्या में भी पाँच हैं। अतः इसका भी पंच सकार नाम सार्थक है नुस्खा निम्नप्रकार है -
(१) संयोग (२) संयोगी भाव (३) स्वभाव (४) स्वभाव के साधन और (५) सिद्धत्व । इस पंच सकार के गुणधर्म एवं उपयोग करने का सही विधि-विधान जानना जरूरी है। अन्यथा इसके गलत उपयोग से भवरोग के साथ निरन्तर भावमरण होते रहने की संभावना बढ़ सकती है।
उपर्युक्त संयोगादि पंच सकारों में निम्नांकित सुखदायक - दुःखदायक आदि पाँच बोल घटित करने से पाँच भवतापहारी महासिद्धान्त फलित होते हैं। वे पाँच बोल निम्न प्रकार हैं
(१) सुखदायक एवं दुखदायक (२) हेय, ज्ञेय एवं उपादेय (३) चार काल :- सादि - सान्त, अनादि-अनन्त, सादि-अनन्त एवं अनादि- सान्त (४) पाँच भाव :- उपशम, क्षय, क्षयोपशम, औदयिक एवं पारिणामिक, (५) सात तत्त्व :- जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा मोक्ष |
अब प्रश्नोत्तरों द्वारा एक-एक को घटित करते हुए बताते हैं :(१) सर्वप्रथम संयोग पर उक्त पाँचों बोल घटित करते हैं :प्रश्न :- संयोग सुखदायक हैं या दुःखदायक ?