________________
४८
पुण्य और धर्म में मौलिक अन्तर
ऐसे क्या पाप किए! मोख के सधैया ग्याता देसविरती मुनीस,
तिनकी अवस्था तौ निरावलंब नांही है ।। कहै गुरु करमको नास अनुभौ अभ्यास,
ऐसौ अवलंब उनहीको उन पांही है। निरुपाधि आतम समाधि सोई सिवरूप,
और दौर धूप पुद्गल परछांही है।।८।। शिष्य कहता है कि हे स्वामी! आपने शुभ-अशुभ क्रिया का निषेध किया सो मेरे मन में सन्देह है, क्योंकि मोक्षमार्गी ज्ञानी अणुव्रती श्रावक वा महाव्रती मुनि भी तो निरावलंब नहीं होते। वे भी तो व्रत, संयम तप आदि शुभक्रिया में करते ही हैं।
श्रीगुरु उत्तर देते हैं कि कर्म की निर्जरा अनुभव के अभ्यास से हैं, सो वे अपने ही ज्ञान में स्वात्मानुभव करते हैं, राग-द्वेष-मोह रहित निर्विकल्प आत्मध्यान ही मोक्षरूप है, इसके बिना और सब भटकना पुद्गल जनित है।
शुभक्रिया व्रत समिति आदि आस्रव ही हैं, इनसे साधु व श्रावक की कर्म-निर्जरा नहीं होती, निर्जरा तो आत्मानुभव से होती है। मुनि एवं श्रावक की दशा में बंध और मोक्ष दोनों हैं - मोख सरूप सदा चिनमूरति,
बंधमई करतूति कही है। जावतकाल बसै जहाँ चेतन,
तावत सो रस रीति गही है।। आतमको अनुभौ जबलौं,
तबलौं सिवरूप दसा निबही है। अंध भयौ करनी जब ठानत,
बंध विथा तब फैल रही है।।९।। १. चिनमूरति = आत्मा । करतूति = शुभाशुभ विभाव परिणति । जावत काल = जितने समय
तक । तावत = तब तक । निबही = रहती है। अंध = अज्ञानी । विथा (व्यथा) = दुःख।
__आत्मा सदैव अबंध है और क्रियाबंधमय कही है, सो जितने समय तक जीव आत्म-अनुभव में लीन रहता है तब तक अबंधदशा रहती है, परन्तु जब स्वरूप से चिगकर क्रिया में लगता है तब बंध का प्रपंच बढ़ता है।
स्वभाव का कभी अभाव नहीं होता और विभाव का प्रतिक्षण अभाव होता है, वीतरागी धर्म आत्मा का स्वभाव है, आत्मा का निर्मल परिणाम है, वह सदैव एक रूप ही रहता है उसका कभी भी पुनः विभाव रूप परिणमन नहीं होता और पुण्य आत्मा का विभाव भाव है, वह सदा एकरूप नहीं रहता, प्रतिक्षण बदलता रहता है। इस अपेक्षा भी पुण्य और पाप में मौलिक अन्तर है। ____ पुण्य में धर्म की भ्रान्ति होने का एक मुख्य कारण यह है कि आगम में भी कहीं-कहीं पुण्य कार्य या शुभ भावों को व्यवहार से धर्म कह दिया गया है। तथा जब जब धर्म की चर्चा चलती है तब प्रवचनकार वक्ताओं द्वारा भी पुण्य करने की प्रेरणा ही अधिक दी जाने लगती है।
दसधर्मों या धर्म के दस लक्षणों के प्रतिपादन में तो अधिकांश ऐसा होता है। दसलक्षण धर्म की पूजा में भी अधिकांश ऐसा हुआ है।
सत्यधर्म की पूजा में सत्यधर्म का ही प्रतिपादन होना चाहिए था; किन्तु सत्यवचन की प्रेरणा देते हुए वहाँ कहा गया है कि -
"कठिन-वचन मत बोल, परनिन्दा अर झूठ-तेज,
साँच जबाहर खोल, सतवादी जग में सुखी। पूरे पद्य में शुभभाव रूप व्रत पालन करने का वर्णन हैं। जैसे - "उत्तम सत्यविरत पालीजे, पर विश्वास घात नहि कीजे,
साँचे-झूठे मानुष देखे, आपन पूत स्व-पास न पेखे।।"
इसीप्रकार त्यागधर्म के प्रकरण में दान के भेद गिनाते हुए सम्पूर्ण छन्द में दान करने की प्रेरणा दी गई है। ___ संयमधर्म तथा तपधर्म के प्रकरण में भी संयम एवं तप के जो १२१२ भेद गिनाये उनमें भी पुण्य कार्य करने की बात ही कही गई है।
(25)