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________________ ऐसे क्या पाप किए ! है। स्वाध्याय में "स्व + अधि+आय = स्वाध्याय" इसका शाब्दिक अर्थ होता है - अपने स्वभाव का सूक्ष्म अध्ययन। अपने स्वभाव के अध्ययन की प्रक्रिया में अपने विभाव और संयोगी पर तत्त्व का अध्ययन आ ही जाता है। परन्तु पर को मात्र जानना है जानकर उसे छोड़ना है, स्व को मात्र जानना ही नहीं बल्कि जानते रहना है, स्वयं में जमना है रमना है उसी में समा जाना है, अतः स्वाध्याय में मुख्यता आत्म ज्ञान की ही है। चारित्र सार नामक ग्रन्थ में लिखा है - " स्वस्मै हितो अध्यायः स्वाध्याय" अर्थात् अपने आत्मा का हित करने वाला अध्ययन करना स्वाध्याय है । तत्वज्ञान को पढ़ना-पढ़ाना स्मरण करना आदि स्वाध्याय है। ४२ स्वाध्याय को जिनवाणी में परमतप कहा है- 'स्वाध्यायः परम तपः' स्वाध्याय ही उत्कृष्ट तप है। स्वाध्याय को मोक्षमार्ग का उत्कृष्टतम साधन होने से सभी धर्म साधकों के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। स्वाध्याय का श्रावक के षट्आवश्यकों में तृतीय स्थान है, मुनियों के षट्आवश्यकों में भी स्वाध्याय को पंचम स्थान प्राप्त है। बारह तपों में भी स्वाध्याय नामक तप है। इस प्रकार 'स्वाध्याय' धर्म साधन का अत्युपयोगी व महत्वपूर्ण अंग है । इससे सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति तो होती ही है साथ ही सर्वाधिक उपयोग की एकाग्रता, मन की स्थिरता व चित्त की निश्चलता स्वाध्याय से ही होती है। अतः नियमित स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए। ४. संयम - संयम अर्थात् अपने उपयोग को पर पदार्थ पर से हटाकर आत्मसन्मुख करना, अपने में समेटना, सीमित करना, अपने में लगाना, उपयोगकी स्वलीनता निश्चय संयम है और पाँच स्थावर और त्रस - इन छह कायों के जीवों की हिंसा से बचना, पाँच व्रतों को धारण करना क्रोधादि कषायों का निग्रह करना, पाँच इन्द्रियों को जीतना; ये व्यवहार संयम हैं। (22) श्रावक के षट् आवश्यक यह संयम सम्यग्दर्शन के बिना नहीं होता और यह संयम मुख्यतया मनुष्य पर्याय में ही होता है, कहने को तिर्यञ्चों को भी हो सकता, पर वह नगण्य ही है। अतः मनुष्य जन्म की सार्थकता संयम से ही हैं। यह अवसर चूकना योग्य नहीं है। ४३ संयम दो प्रकार का है। १. प्राणि संयम, २. इन्द्रिय संयम । छहकाय के जीवों की रक्षा प्राणिसंयम एवं पाँच इन्द्रियों व मन को वश में करना इन्द्रिय संयम है। इसे रत्न की तरह संभालने की सलाह द्यानतराय कवि ने दी है। वे कहते हैं - "संयम रतन संभाल, विषय चोर बहुत फिरत हैं।" पण्डित टोडरमलजी ने उक्त दोनों संयमों के पालन में होने वाली मूल बाधाओं की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हुए कहा है कि हिंसा आदि पापों में प्रमाद परिणति मूल है और इन्द्रिय विषयों में अभिलाषा मूल है, अतः इनके पालन करते समय उनसे बचने में सावधानी रखें। प्रश्न : यदि ऐसा है तो देवताओं में संयम होना चाहिए। देवगति में संयम क्यों नहीं होता? वहाँ द्रव्य हिंसा तो है ही नहीं और पाँचों इन्द्रियों के भोग भी ऊपर-ऊपर घटते गये हैं। समाधान : वस्तुतः संयम सम्यग्दर्शनपूर्वक आत्मा के आश्रय से उत्पन्न हुई वीतराग परिणति का नाम है, जो कम से कम दो कषाय चौकड़ी के अभाव में ही होता है अर्थात् अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभ और अप्रत्याख्यानावरण क्रोध-मान-माया लोभ । स्वर्ग में दूसरी अप्रत्याख्यानावरण चौकड़ी का अभाव नहीं होता । अतः बाह्य हिंसा व विषय न होते हुए भी संयम नहीं है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि मात्र बाह्य में अहिंसक क्रिया और इन्द्रियों के त्याग की क्रिया कार्यकारी नहीं है। अतः सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन होना अनिवार्य है।
SR No.008338
Book TitleAise Kya Pap Kiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size489 KB
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