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ऐसे क्या पाप किए! ५. तप - तप के सम्बन्ध में भी आचार्य कुन्दकुन्द यह कहते हैं कि "समस्त रागादि परभावों की इच्छा के त्याग द्वारा स्वस्वरूप में प्रतपन करना विजय करना तप है। इसमें अस्ति-नास्ति - दोनों कथन आ गये। अस्तित्व से स्वरूप में प्रतपन करना, लीन होना तप है और नास्ति से कहें तो "इच्छाओं का निरोध करना तप है। अन्य आचार्यों ने कहा है -
तप के मूलतः दो भेद हैं - १. अंतरंग तप, २. बहिरंग तप । अन्तरंग तप के छह भेद हैं - १. प्रायश्चित, २. विनय, ३. वैयाव्रत, ४. स्वाध्याय, ५. व्युत्सर्ग ६. ध्यान तथा बहिरंग तप के भी छह भेद हैं - १. अनशन, २. उनोदर, ३. वृत्तिपरिसंख्यान, ४. रसपरित्याग, ५. विविक्त शैयासन
और ६. काय क्लेश । ये तप मुख्यतया तो साधुओं के होते हैं, समकिती गृहस्थ भी यथा साध्य इन्हें करते ही हैं, करना भी चाहिए।
६. दान - यह अन्तिम छठवाँ आवश्यक है। दान के सम्बन्ध में आचार्य उमास्वामी ने लिखा है कि - अनुग्रह अर्थात् उपकार के हेतु अपने धनादि को दूसरों को देना दान है। दान में परोपकार की भावना मुख्य रहती है। वैसे शास्त्रों में आहारदान, ज्ञानदान, औषधिदान और अभयदान की चर्चा है; परन्तु यह चर्चा साधु-संतों की मुख्यता से तथा अपने पूज्य और श्रद्धेय पुरुषों को इन चारों दानों द्वारा जीवन निर्वाह के साधन जुटाने की मुख्यता से हैं। इनके अतिरिक्त, दया दत्ति, समदत्ति धर्मायतन के निर्माण और जिनवाणी के प्रचार-प्रसार आदि में न्यायोपार्जित द्रव्य देना जैसे और भी दान के अनेक रूप हैं जो श्रावकों को अपने विवेक से करना ही चाहिए।
पुण्य और धर्म में मौलिक अन्तर पुण्य-पाप दोऊ करम, बन्धरूप दुर मानि ।
शुद्ध आत्मा जिन लह्यो, नमूं चरण हित जानि ।।' यद्यपि शताब्दियों से जिनवाणी के रहस्यवेत्ता पुण्य-पाप और धर्म के स्वरूप की चर्चा करते आ रहे हैं, तथापि तत्त्वज्ञान के अनभ्यास के कारण आज भी अधिकांश लोग पुण्य व धर्म में अन्तर नहीं समझते। ___ यद्यपि पुण्यभाव और पुण्य-क्रियायें ज्ञानी-सम्यग्दृष्टि व मुनिजनों के जीवन में भी पायी जाती हैं, किन्तु उनके पुण्य की चाह नहीं है। जब-जब ज्ञानी व मुनि अपनी वीतराग परिणति में नहीं ठहर पाते, तब-तब उनके शुभभाव एवं पुण्य-क्रियायें ही पायी जाती हैं, किन्तु उनको इसका हर्ष नहीं होता; बल्कि खेद वर्तता है। वे इन शुभभावों या पुण्य क्रियाओं में ही सन्तुष्ट होकर रम नहीं जाते । वे इनमें धर्म नहीं मानते । पुण्य कर्म धर्म नहीं, धर्म की सीढ़ियाँ हैं, सोपान है, जिन्हें छोड़ते हुए आत्मा में आते हैं, निज घर में प्रवेश करते हैं। अन्दर आने का मार्ग मन्दिर में से ही हैं। __जिसप्रकार सरकस में झूले पर झूलती हुई लड़की झूले से चूक जाये तो जाली पर गिरती है, किन्तु गिरकर वह हर्षित नहीं होती; अपितु खेदखिन्न होती है। गिरना उसे कोई गौरव की बात नहीं लगती, बल्कि शर्म महसूस होती है लेकिन जमीन पर गिरने से तो मौत ही होगी, अतः जान बचाने के लिये जाली बाँधते हैं, विश्राम करने के लिये नहीं; उसीप्रकार अपने स्वभाव के झूले से गिरें तो शुभभाव की जाली पर आते हैं; क्योंकि अशुभभाव की कठोर भूमि पर गिरना तो साधक की मौत है, अशुभभाव में तो साधुता ही खण्डित हो जाती है। ज्ञानी-सम्यग्दृष्टि के शुभाशुभ दोनों ही प्रकार के भावों का अस्तित्व है, किन्तु ज्ञानी को शुभ की चाह नहीं १. आचार्य पद्मप्रभमलधारिदेव : नियमसार, कलश ५९
नोट - संयम, तप एवं दान की विशेष जानकारी के लिए 'धर्म के दशलक्षण' का स्वाध्याय
अवश्य करें।
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